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तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना ये प्रश्न मानव मस्तिष्कको आन्दोलित करते रहते है। इन्हीं प्रश्नोंके समाधानमें जीवन का लक्ष्य क्या है ? धर्मकी आवश्यकता क्यों है ? आदि प्रश्नोंका समाधान निहित है।
सम्यकदर्शन एक क्रियात्मक शब्द है, अर्थात् सम्यक्-अच्छीतरह दर्शन-देखना । प्रश्न यह है कि'क्यों देखना, किसको देखना और कैसे देखना ।' 'क्यों देखना' तो इसलिए कि मनुष्य स्वभावतः मननशील
और दर्शनशील प्राणी होते हैं । उनका मन यह तो विचारता ही है कि----यह जीवन क्या है ? क्या जन्म से मरणतक ही इसकी धारा है या आगे भी ? जिन्दगीभर जो अनेक द्वंद्वों और संघर्षोंसे जूझना है वह किसलिए ? अतः जब इसका स्वभाव ही मननशील है तथा संसारमें सैकड़ों मत प्रचारक मनुष्यको बलात् वस्तुस्वरूप दिखाते हुए चारों ओर घूम रहे हैं, 'धर्म डुबा, संस्कृति डूबी, धर्मकी रक्षा करो, संस्कृतिको बचाओ' आदि धर्मप्रचारकोंके नारे मनुष्यके कानके पर्दे फाड़ रहे हैं तब मनुष्यको न चाहने पर भी देखना तो पड़ेगा ही। यह तो करीब करीब निश्चित ही है कि मनुष्य या कोई भी प्राणी अपने लिए ही सबकुछ करता है, उसे सर्वप्रिय वस्तु अपनी ही आत्मा है। उपनिषदोंमें आता है कि "आत्मनो वै कागाय सर्व प्रियं भवति ।” कुटुम्ब स्त्री पुत्र तथा शरीरका भी ग्रहण अपनी आत्माकी तुष्टिकेलिए किया जाता है । अत: 'किसको देखना' इस प्रश्न का उत्तर है कि सर्वप्रथम उस आत्माको ही देखना चाहिए जिसके लिए यह सब कुछ किया जा रहा है, और जिसके न रहने पर यह सब कुछ व्यर्थ है , वही आत्मा द्रष्टव्य है, उसीका सम्यक्दर्शन हमेंकरना चाहिए। कैसे देखना' इस प्रश्न का उत्तर धर्म और सम्यग्दर्शन का निरूपण है ।
जैनाचार्योंने 'वत्थुस्वभावो धम्मों' यह धर्मकी अन्तिम परिभाषा की है। प्रत्येक वस्तुका अपना निज स्वभाव ही धर्म है तथा स्वभावसे च्युत होना अधर्म है। मनुष्यका मनुष्य रहना धर्म है पशु बनना अधर्म है । आत्मा जब तक अपने स्वरूपमें है धर्मात्मा है, जहाँ स्वरूपसे च्युत हुआ अधर्मात्मा बना । अतः जब स्त्ररूपस्थिति ही धर्म है तब धर्मकेलिए भी स्वरूपका जानना नितान्त आवश्यक है। यह भी जानना चाहिए कि आत्मा स्वरूपच्युत क्यों होता है ? यद्यपि जलका गरम होना उसकी स्वरूपच्युति है, एतावता वह अधर्म है पर जल चूंकि जड़ है, अतः उसे यह भान ही नहीं होता कि मेरा स्वरूप नष्ट हो गया है । जैन तत्त्वज्ञान तो यह कहता है कि जिस प्रकार अपने स्वरूपसे च्युत होना अधर्म है उसी प्रकार दूसरेको स्वरूपसे च्युत करना भी अधर्म है । स्वयं क्रोध करके शान्तस्वरूपसे च्युत होना जितना अधर्म है उतना ही दूसरे के शान्तस्वरूपमें विघ्न करके उसे स्वरूपच्युत करना भी अधर्म है । अतः ऐसी प्रत्येक विचार धारा, वचनप्रयोग और शारीरिक प्रवृत्ति अधर्म है जो अपनेको स्वरूपच्युत करती हो या दूसरेकी स्वरूपच्युतिका कारण होती हो ।
आत्माके स्वरूपच्युत होनेका मुख्य कारण है-स्वरूप और स्वाधिकारकी मर्यादाका अज्ञान । संसारमें अनन्त अचेतन और अनन्त चेतन द्रव्य अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं। प्रत्येक अपने स्वरूपमें परिपूर्ण है। इन सबका परिणमन मूलतः अपने उपादानके अनुसार होकर भी दूसरेके निमित्तसे प्रभाबित होता है। अनन्त अचेतन द्रव्योंका यद्यपि संयोगोंके आधारसे स्वरसतः परिणमन होता रहता है पर जड़ होनेके कारण उनमें बुद्धिपूर्वक क्रिया नहीं हो सकती। जैसी जैसी सामग्री जुटती जाती है वैसा वैसा उनका परिणमन होता रहता है । मिट्टीमें यदि विष पड़ जाय तो उसका विषरूप परिणमन हो जायगा यदि क्षार पड़ जाय तो खारा परिणमन हो जायगा। चेतन द्रव्य ही ऐसे हैं जिनमें बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति होती है । ये अपनी प्रवृत्ति तो बुद्धिपूर्वक करते ही हैं साथ ही साथ अपनी बुद्धिके अनधिकार उपयोगके कारण दूसरे द्रव्योंको अपने अधीन करनेकी कुचेष्टा भी करते हैं। यह सही है कि जबतक आत्मा अशुद्ध या शरीरपरतन्त्र है तबतक उसे परपदार्थोंकी आवश्यकता होगी और वह परपदार्थोके बिना जीवित भी नहीं रह सकता। पर इस अनिवार्य स्थितिमें भी उसे यह सम्यकदर्शन तो होना ही चाहिए कि-"यद्यपि आज मेरी अशुद्ध दशामें शरीरादिके परतन्त्र होनेके कारण नितान्त परवश स्थिति है और इसके लिए यत्किचित् परसंग्रह आवश्यक है पर मेरा निसर्गत: परद्रव्योंपर कोई अधिकार नहीं है।
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