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तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना
रूप होगी, पुद्गलकी अचेतनरूप। पुद्गलका परिणमन रूप रस गन्धादिरूप होगा, जोव का चैतन्य के विकाररूप। हाँ, यह वास्तविक स्थिति है कि नूतन कर्मपुद्गलोंका पुराने बंधे हाए कर्मशरीरके साथ रासायनिक मिश्रण हो और वह उस पुराने कर्मपुद्गल के साथ बंधकर उसी स्कन्बमें शामिल हो जाय । होता भी यही है। पुराने कर्मशरीरसे प्रतिक्षण अमुक परमाणु झरते हैं और दूसरे कुछ नए शामिल होते हैं। परन्तु आत्मप्रदेशाने उनका बन्ध रासायनिक बिलकूल नहीं है। वह तो मात्र संयोग है। प्रदेशबन्धकी व्याख्या तत्त्वार्थ गत्रकारने यही की है-'नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ।" (तत्त्वार्थसूत्र ८।२४) अर्थात् योगके कारण समस्त आत्म प्रदेशोंपर मुझम पद्गल आकर एकक्षेत्रावगाही हो जाते हैं । इसीका नाम प्रदेशवन्ध है। व्यबन्ध भी यही है । अत: आत्मा और कर्मशरीरका एकक्षेत्रावगाहके सिवाय अन्य कोई रासायनिक मिश्रण नहीं होता। गमायनिक मिश्रण नवीन कमपुरलोंका प्राचीन कर्म गलोंसे ही हो सकता है, आत्मप्रदेशोंसे नहीं।
जीवके रागादिभावोंसे जो योगक्रिया अर्थात् आत्मप्रदेशका परिस्पन्द होता है उससे कम वर्गणाएँ खिंचती हैं । वे शरीरके भीरतसे भी खिंचती है बाहिरसे भी। खिचकर आत्मप्रदेशोंपर बा प्राकबद्ध कर्मशरीरसे बन्धको प्राप्त होती है। इस योगसे उन कर्मवर्गणाओंमें प्रकृति अर्थात् स्वभाव पड़ता है। यदि वे कर्मपुद्गल किसी के ज्ञानमें बाधा डालने रूप क्रियासे खिचे हैं तो उनमें ज्ञानावरणका स्वभाव पड़ेगा
और यदि रागादि कषायमे तो उनमें चारित्रावरणका । आदि । तात्पर्य यह कि आए हरा कर्म पदगलांको आ प्रदेशोंसे एक क्षेत्रावगाही कर देना और उनमें ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि स्वभावोंका पड़ जाना योगमे होता है। इन्हें प्रदेशवन्ध और प्रकृतिवन्ध कहते हैं। कषायोंकी तीव्रता और मन्दता के अनुसार उस कर्मपुद्गलम स्थिति और फल देने की शक्ति पड़ती है यह स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध कहलाता है। ये दोनों वन्ध कषायसे होते हैं। केवली अर्थात् जीवन्मुक्त व्यक्तिको रागादि कषाय नहीं होती अत: उनके योगके द्वारा जो कर्म पुद्गल आते हैं वे द्वितीय समयमें झड़ जाते हैं, उनका स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध नहीं होता। वन्ध प्रतिक्षण होता रहता है और जैसा कि मैं पहिले लिख आया हूँ कि उसमें अनेक प्रकारका परिवर्तन प्रतिक्षणभावी कवायादिक अनुसार होता रहता है। अन्तम कर्मशरीरकी जो स्थिति रहती है उसके अनुसार फल मिलता है। उन कर्मनिषकोंके उदयसे बाह्य वातावरण पर वैसा वैमा असर पड़ता है। अन्तरंगेम वैसे वैसे भाव होते हैं। आयुर्वन्धके अनुसार स्थल शरीर छोड़नेपर उन उन योनियोम जीवको नया स्थल गरीर धारण करना पड़ता है। इस तरह यह बन्धचक्र जबतक राग द्वेष मोह वासनाएँ आदि विभाव भाव हं बराबर चलता रहता है।
बन्धहेतु आस्रव--मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कयाय और योग ये पांच बन्धके कारण हैं। इन्हें आनवप्रत्यय भी कहते हैं। जिन भावोंके द्वारा काँका आस्रव होता है उन्हें भावास्रव कहते हैं और कर्मद्रव्यका आना द्रव्यास्रव कहलाता है। पुद्गलोंमें कर्मत्व प्राप्त हो जाना भी द्रव्यानव कहलाता है। आत्मप्रदेशतक उनका आना द्रव्यास्रव है। जिन भावोंसे वे कर्म खिचते हैं उन्हें भावानव कहते हैं । प्रथमक्षणभावी भावोंको भावान्त्र व कहते हैं और अग्रिम क्षणभावी भावोंको भाव बन्ध । भावानव जैसा तीब्र मन्द मध्यमात्मक होगा तज्जन्य आत्मप्रदेशपरिस्पन्दसे वसे कर्म आयेंगे और आत्मप्रदेशोंसे बंधेगे। भावबन्धके अनुसार उस स्कन्धमें स्थिति और अनुभाग पड़ेगा। इन आस्रवोंमें मुख्य अनन्तकर्मबन्धक आस्रव है मिथ्यात्व अर्थात् मिथ्या दृष्टि। यह जीव अपने आत्मस्वरूपको भलकर शरीरादि पर द्रव्योंमें आत्मद्धि करता है और इसके समस्त विचान
और क्रियाएँ उन्हीं शरीराश्रित व्यवहारों में उलझी रहती हैं। लौकिक यशोलाभ आदिकी दृष्टि से ही यह धर्म जैसी क्रियाओंका आचरण करता है। स्व-पर विवेक नहीं रहता। पदार्थों के स्वरूपमें भ्रान्ति बनी रहती है। तात्पर्य यह कि लक्ष्यभूत कल्याणमार्ग में ही इसकी सम्यक् श्रद्धा नहीं होती। वह सहज और गहीन दोनों प्रकारकी मिथ्या दृष्टियोंके कारण तत्त्वरुचि नहीं कर पाता। अनेक प्रकारकी देव गुरु तथा लोकमताओंको धर्म समझता है। शरीर और शरीराश्रित स्त्री पुत्र कुटम्बादिके मोहमें उचित अनुचित्तका विवेक किए बिना
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