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तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना
अर्थात् जो आत्माको देखता है उसे यह मेरा आत्मा है ऐसा नित्य स्नेह होता है । स्नेहले आत्मसुखमें तृष्णा होती है। तृष्णासे आत्माके अन्य दोषोपर दुष्टि नहीं जाती, गुण ही गुण दिखाई देते हैं। आत्मसुखमगण देखनसे उसके साधनोंम ममकार उत्पन्नता है. उन्हें वह ग्रहण करता है। इसतरह जब तक आत्माका अभिनिवेश है तब तक संसार ही है। क्योंकि
आत्मदर्शी व्यक्ति जहाँ अपने आत्मस्वरूपको उपादेय समझता है वहाँ यह भी तो समझता है कि शरीरादि पर पदार्थ आत्माके हितकारक नहीं है। इनमें रागद्वेष करता ही आत्माको बन्धमें डालनेवाला है। आत्माको स्वरूपमात्रप्रतिष्टारूग सुखके लिए किसी साधनके ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु जिन शरीरादि परपदार्थोमें सुखसावनत्वकी मिथ्याबुद्धि कर रखी है वह मिथ्याबुद्धि ही छोड़ना है। आत्मगुणका दर्शन आत्ममा में लीनताका कारण होगा न कि बन्धनकारक पर पदार्थोंके ग्रहणका। शरीरादि पर पदार्थोमें होनेवाला आत्माभिनिवेश अवश्य गगादिका सर्जक हो सकता है किन्तु गरीरादिसे भिन्न आत्मतत्त्वका दर्शन क्यों शरीरादिमें रागादि उत्पन्न करेगा? यह तो धर्मकीति नथा उनके अनुयायिओंका आत्मतत्त्वक अव्याकृत होने के कारण दृष्टिव्यामोह है जो वे अंधे में उसका शरीरस्कन्धरूप ही स्वरूप टटोल रहे हैं और आत्मदृष्टिको मिथ्यादृष्टि कहनेका दुःसाहस कर रहे है। एक ओर वे पृथिवी आदि भूतोंसे आत्माकी उत्पत्ति का खंडन भी करते हैं. दूसरी ओर रूपवेदना संज्ञा संस्कार और विज्ञान इन पांच स्कन्धोंसे व्यतिरिक्त किसी आत्माको मानना भी नहीं चाहते । इनमें वेदना संज्ञा संस्कार और विज्ञान ये चार स्कन्ध चेतनात्मक हो सकते है पर रूपस्कन्धको चेतन कहना चार्वाकके भूतात्मवाद से कोई विशेषता नहीं रखता। जबद्ध स्वयं आत्माको अव्याकृतकोटिमें डाल गा तो उनके शिष्योंका यक्तिमलक दार्शनिक क्षेत्रोंमें भी आत्माक विषयमें परस्पर विरोधी दो विचारोंमें दोलित रहना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। आज राहुल सांकृत्यायन बद्धके इन विचारोंको 'अभौतिकअनात्मवाद' जैसे उभयप्रतिषेयक नामसे पुकारते हैं। वे यह नहीं बता सकनं कि आखिर फिर आत्मा का स्वरूप है क्या ? क्या उसकी रूपस्कन्धकी तरह स्वतन्त्र सत्ता है ? क्या वेदना मंज्ञा संस्कार और विज्ञान ये स्कन्ध भी रूपस्कन्धकी तरह स्वतन्त्रसत है ? और यदि निर्वाणमें चित्तसन्तति निद्ध हो जाती है तो चार्वाकके एकजन्मतक सीमित देहात्मवादसे इस अनेक जन्म-सीमित देहात्मवादमें क्या मौलिक विशेषता रहती है ? अन्तमें तो उसका निरोध हुआ ही ।।
महावीर इस असंगतिजालमें न तो स्वयं पड़े और न शिष्योंको ही उनने इसमें डाला। यही कारण है, जो उन्होंने आत्माका पूरा पूरा निरूपण किया और उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना। जैसा कि मैं पहिले लिख आया हूँ कि धर्मका लक्षण है बस्तुका स्व-स्वभाव स्थिर होना। आत्माका खालिस आत्मरूपमें लीन होना ही धर्म है और मोक्ष है। यह मोक्ष आत्मतत्त्वकी जिज्ञासाके बिना हो ही नहीं सकता।
आत्मा तीन प्रकारके है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। जो आत्माएँ शरीरादिको ही अपना रूप मानकर उनकी ही प्रिय साधनाम लगे रहते हैं वे बहिर्मख बहिरात्मा हैं। जिन्हें स्वपरविवेक या भेदविज्ञान उत्पन्न हो गया है, शरीरादि वहि पदार्थोसे आत्मदृष्टि हट गई है वे मम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा है। जो समस्त कर्ममल कलंकोंसे रहित होकर युद्ध चिन्मात्र स्वरूपमें मग्न हैं वे परमात्मा है। एक ही आत्मा अपने स्वरूपका यथार्थ परिज्ञान कर अन्तर्दष्टि हो त्रमशः परमात्मा बन जाता है । अत: आत्मधर्मकी प्राप्निके लिए या बन्धमोक्षके लिए आत्मतत्त्वका परिज्ञान नितान्त आवश्यक है।
जिस प्रकार आत्मतत्त्वका ज्ञान अवश्यक है उसी प्रकार जिन अजीवोंके सम्बन्धसे आत्मा विकृत होता है, उसमें विभावपरिणति होती है उस अजीवतत्त्वके ज्ञानकी भी आवश्यकता है। जब तक इस अजीवतत्त्वको नहीं जानेंगे तब तक किन दोमें बन्ध हुआ यह मूल बात ही अज्ञात रह जाती है । अतः अजीवतत्त्वका ज्ञान जरूरी है। अजीवतत्त्वमें चाहे धर्म अधर्म आकाश और कालका सामान्य ज्ञान ही हो पर पुद्गलका किंचित्
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