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तत्त्वनिरूपण
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सारांश यह कि दुःखका कारण तृष्णा है और तृष्णाकी उद्भुति स्वाधिकार एवं स्वस्वरूपक अज्ञानके कारण होती है, पर पदार्थोंको अपना मानने के कारण होती है। अत: उसका उच्छेद भी स्वस्वरूप के यथार्थ परिज्ञानसे या स्वपरविवेकसे ही हो सकता है । इस मानवने अपने आत्माके स्वरूप और उसके अधिकारकी सीमाको न जानकर सदा मिथ्या आचरण किया और पर पदार्थोके निमित्त में जगतमें अनेकः कल्पित ऊंच नीच भावोंकी सृष्टिकर मिथ्या अहंकारका पोषण किया। शरीराश्रित पा जीविकाश्रित ब्राह्मण क्षत्रियादि वर्णोको लेकर ऊंच नीच व्यवहारकी भेदक भित्ति खड़ी कर मानवको मानवसे इतना जुदा कर दिया जो एक उच्चाभिमानी मांसपिंड दूसरेकी छायासे या दूसरे को छूनसे अपने को अपवित्र मानने लगा। वाह्य परपदार्थोके संग्रही और परिग्रही को सम्राट् राजा आदि संज्ञाएँ देकर कृष्णा की पूजा की। इस जगतमें जितने संघर्ष और हिंसाएँ हुई है वे सब पर पदार्थों की छीनाझपटीके कारण ही हुई है। अत: जब तक मुमुक्षु अपने वास्तविक रूपको तथा तृष्णाके मूल कारण 'परत्र आत्मबुद्धि' को नहीं समझ लेता तब तक दुःखनिवृत्तिकी समुचित भूमिका ही तैयार नहीं हो सकती। बुद्धने संक्षेपमें पच स्कन्धोंको दुःख कहा है, पर महावीरने उसके भीतरी तत्त्वज्ञानको बताया-च कि ये स्कन्ध आत्मरूप नहीं है अतः इनका संसर्ग ही अनेक रागादिभावोंका सर्जक है, अतः ये दुःखस्वरूप है। अतः निगकुल सुखका उपाय आत्ममात्रनिष्टा और पर पदार्थोसे ममत्वका हटाना ही है। इसके लिए आत्मदृष्टि ही आवश्यक है। आत्मदर्शनका उपर्युक्त प्रकार परपदार्थों द्वेष करना नहीं सिखाता किन्तु यह बताता है कि इनमें जो तुम्हारी तृष्णा फैल रही है वह अनधिकार चेष्टा है । वास्तविक अधिकार तो तुम्हारा अपने विचार और अपनी प्रवृत्ति पर ही है। इस तरह आत्माके वास्तविक स्वरूपका परिज्ञान हुए बिना दुःखनिवृत्ति या मक्तिकी संभावना ही नहीं की जा सकती। अतः धर्मकीर्तिकी यह आशंका भी निर्मल है कि--
"आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ ।
अनयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते ॥” प्रमाण वा० १।२२१] अर्थात् आत्माको माननेपर दूसरोंको पर मानना होगा। स्व और पर विभाग होते ही स्वका परिग्रह और परसे द्वेष होगा। परिग्रह और द्वेष होनसे रागद्वेपमूलक सैकड़ों अन्य दोष उत्पन्न होते हैं।
यहाँ तक तो ठीक है कि कोई व्यक्ति आत्माको स्व और आत्मेतरको पर मानेगा। पर स्व-परविभागसे परिग्रह और द्वेष कैसे होंगे ? आत्मस्वरूपका परिग्रह कैसा ? परिग्रह तो शरीर आदि पर पदार्थोंका और उसके सुखसाधनोंका होता है जिन्हें आत्मदर्शी व्यक्ति छोड़ेगा ही ग्रहण नहीं करेगा। उसे तो जैसे स्त्री आदि सुखसाधन पर हैं वैसे शरीर भी। राग और द्वेषभी शरीरादिके सुख साधनों और असाधनोंमें होते हैं सो आत्मदर्शीको क्यों होंगे ? उलटे आत्मद्रष्टा करीरादिनिमित्तक यावत् रागद्वेष इन्द्रोंक त्यागका ही स्थिर प्रयत्न करेगा। हाँ,जिसने शरीरस्कन्धको ही आत्मा माना है उसे अवश्य आत्मदर्शनसे शरीरदर्शन प्राप्त होगा और शरीरके इष्टानिष्टनिमित्तक पदार्थों में परिग्रह और द्वेष हो सकते है. किन्त जो दारीरको भी पर ही मान रहा है तथा द:खका कारण समझ रहा है वह क्यों उसमें तथा उसके
निष्ट साधनोंमें रागद्वेष करेगा? अत: शरीरादिरो भिन्न आत्मस्वरूपका परिज्ञान ही रागद्वेषकी जड़को काट सकता है और बीतरागताको प्राप्त करा सकता है । अत: धर्मकीतिका आत्मदर्शनकी बुराइयोंका यह वर्णन भी नितान्त भ्रमपूर्ण है--
"यः पश्यत्यात्मानं तत्रास्यामिति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहात् सुखेषु तृष्यति तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते ॥ गुणदर्शी परितृष्यन् ममेति तत्माधनान्युपादत्ते । तेनात्माभिनिवेशो यावत् तावत् स संसारे।" [प्रमाणवा० ११२१९-२० ]
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