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तत्त्वार्थवृत्ति
विभिन्न मत रखते हों और चर्चा भी करते हों, तो मानस अहिंसक कैसे रह सकते हैं? जबतक उनका समाधान वस्तुस्थिति मूलक न हो जाय तबतक वे कैसे परस्पर समता और अहिंसाका वातावरण बना सकते होंगे ?
महावीरने तत्त्वका साक्षात्कार किया और उनने धर्मकी सीधी परिभाषा बताई वस्तुका स्वरूपस्थित होना- "वस्तुस्वभावो धम्मो" - जिस वस्तुका जो स्वरूप है उसका उस पूर्णस्वरूपमें स्थिर होना ही धर्म है । after यदि अपनी उष्णताको लिए हुए है तो वह धर्मस्थित है। यदि वह वायुके झोंकोंसे स्पन्दित हो रही है तो कहना होगा कि वह चंचल है अतः अपने निश्चलस्वरूप से च्युत होनेके कारण उतने अंशमें धर्मस्थित नहीं है । जल जबतक अपने स्वाभाविक शीतस्पर्शमें है तबतक वहधर्मस्थित है । यदि वह अग्निके संसर्गसे स्वरूपच्युत हो जाता है तो वह अधर्मरूप हो जाता है और इस परसंयोगजन्य विभावपरिणतिको हटा देनाही जलकी मुक्ति है उसकी धर्मप्राप्ति हैं। रोगी के यदि अपने आरोग्यस्वरूपका भान न कराया जाय तो वह रोगको विकार क्यों मानेगा और क्यों उसकी निवृत्तिकेलिए चिकित्सामें प्रवृत्ति करेगा ? जब उसे यह ज्ञात हो जाता है कि मेरा तो स्वरूप आरोग्य है । इस अपथ्य आदि से मेरा स्वाभाविक आरोग्य विकृत हो गया है, तभी वह उस आरोग्य प्राप्ति के लिए चिकित्सा कराता है । भारतकी राष्ट्रीय कांग्रेसने प्रत्येक भारतवासीको जब यह स्वरूपबोध कराया कि 'तुम्हें भी अपने देशमें स्वतंत्र रहनेका अधिकार है इन परदेशियोंने तुम्हारी स्वतंत्रता विकृत कर दी है, तुम्हारा इस प्रकार शोषण करके पददलित कर रहे हैं। भारत सन्तानों, उठो, अपने स्वातंत्र्यस्वरूपका भान करो" तभी भारतने अंगड़ाई ली और परतंत्रताका बंधन तोड़ स्वातंत्र्य प्राप्त किया। स्वातंत्र्यस्वरूपका भान किये बिना उसके सुखदरूपकी झांकी पाए बिना केवल परतंत्रता तोड़नेकेलिए वह उत्साह और सन्नद्धत्ता नहीं आ सकती थी । अतः उस आधारभूत आत्माके मूलस्वरूपका ज्ञान प्रत्येक मुमुक्षको सर्वप्रथम होना ही चाहिए जिसे बन्धनमुक्त होना है ।
भगवान् महावीरने मुमुक्षकेलिए दुःख अर्थात् बन्ध, दुःखके कारण अर्थात् मिथ्यात्व आदि आस्रव, मोक्ष अर्थात् दुःखनिवृत्तिपूर्वक स्वरूपप्राप्ति और मोक्षके कारण संवर अर्थात् नूतन बन्धके कारणोंका अभाव और निर्जरा अर्थात् पूर्वसंचित दुःखकारणोंका क्रमशः विनाश, इस तरह बुद्ध के चतुरार्य सत्यकी तरह बन्ध, मोक्ष, आस्रव संबर और निर्जरा इन पांच तत्त्वों के ज्ञानके साथ ही साथ जिस जीवको यह सब बन्ध मोक्ष होता है उस जीवका ज्ञान भी आवश्यक बताया । शुद्ध जीवको बन्ध नहीं हो सकता । बन्ध दो में होता है । अतः जिस कर्मपुद्गलसे यह जीव बंधता है उस अजीव तत्त्वको भी जानना चाहिए जिससे उसमें रागद्वेष आदिकी धारा आगे न चले । अतः मुमुक्षकेलिए जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका ज्ञान आवश्यक है ।
जीव - आत्मा स्वतंत्र द्रव्य है । अनन्त है । अमूर्त है । चैतन्यशक्तिवाला है। ज्ञानादि पर्यायोंका कर्ता है । कर्मफलका भोक्ता है। स्वयंप्रभु है। अपने शरीर के आकारवाला है। मुक्त होते ही ऊर्ध्वगमन कर लोकान्तमें पहुँच जाता है ।
भारतीय दर्शनोंमें प्रत्येक ने कोई न कोई पदार्थ अनादि माने हैं । परम नास्तिक चार्वाक भी पृथ्वी आदि महाभूतोंको अनादि मानता हूँ । ऐसे किसी क्षणकी कल्पना नहीं आती जिसके पहले कोई क्षण न रहा हो । समय कवसे प्रारंभ हुआ इसका निर्देश असंभव है। इसी तरह समय कब तक रहेगा यह उत्तरावधि बताना भी असंभव है । जिस प्रकार काल आनादि अनन्त है उसकी पूर्वावधि और उत्तरावधि निश्चित नहीं की जा सकती उसी तरह आकाश की कोई क्षेत्रकृत मर्यादा नहीं बताई जा सकती । 'सर्वतो ह्यनन्तं तत्' सभी ओरसे वह अनन्त है । आकाश और कालकी तरह हम प्रत्येक सके विषयमें यह कह सकते हैं कि उसका न किसी खास क्षण में नूतन उत्पाद हुआ है और न किसी समय उसका समूल विनाश ही होगा । " नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सतः " अर्थात् किसी असत्का सदरूपसे उत्पाद नहीं होता और न किसी सत्का समूल विनाश ही हो सकता है । जितने गिने हुए सत् हैं उनकी संख्या में वृद्धि नहीं हो सकती और न उनकी संख्या में से किसी एककी
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