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तत्त्वनिरूपण
क्रोध आते ही आंखें लाल हो जाती है, खनकी गति बढ़ जाती है, मुंह मूखने लगता है, नथुने फड़कने लगते हैं । काम वासनाका उदय होते ही सारे शरीरमें एक विलक्षण प्रकारका मन्थन शुरू होता है । और जब तक वह कपाय या वासना शांत नहीं हो लेती यह चहल-पहल मन्थन आदि नहीं रुकता। आत्माके विचारोंके अनुसार पुद्गल द्रव्योंमें परिणमन होता है और विचारोंके उत्तेजक पुद्गल द्रव्य आत्माके वासनामय सूक्षा कर्मशरीरमें शामिल होते जाते हैं। जब जब उन कर्मपुद्गलोंपर दवाब पड़ता है तब तब वे कर्मपुद्गल फिर उन्हीं रागादि भावोंको आत्माम उत्पन्न कर देते हैं। इसी तरह रागादि भावोंसे नए कर्मपुद्गल कर्मशरीरमें शामिल होते है तथा उन कर्मपुद्गलोंके परिपाकके अनुसार नतन रागादि भावोंकी सृष्टि होती है। फिर नए कर्मपुद्गल बंधते हैं फिर उनके परिपाकके समय रागादिभाव होते हैं। इस तरह रागादिभाव और कर्म पृद्गलबन्धका चक्र बराबर चलता रहता है जबतक कि चरित्रके द्वारा रागादि भावोंको रोक नहीं दिया जाना। इस बन्ध परम्पराका वर्णन आचार्य अमतचन्द्रसूरि ने पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें इस प्रकार किया है
"जीवकृतं परिणाम निमित्रमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।। १२ ॥ परिणममानस्य चितश्चिदात्मकः स्वयमपि स्वकर्भावः ।
भवति हि निमित्तमात्रं पौदर्गालकं कर्म तस्यापि ॥ १३ ॥" अर्थात् जीवके द्वारा किये गए राग द्वेष मोह आदि परिणामोंको निमित्त पाकर पुद्गल परमाणु स्वतः ही कर्मरूपसे परिणत हो जाते हैं। आत्मा अपने चिदात्मक भावों से स्वयं परिणत होता है, पुद्गल वर्म तो उसमें निमित्तमात्र है । जीव और पुद्गल एक दूसरेके परिण मनमें परस्पर निमित्त होते हैं।
सारांश यह कि जीवकी वासनाओं राग द्वेष मोह आदि की और पुगल कर्मबन्धकी धारा बीजवृक्षसन्तति की तरह अनादिसे चालू है । पूर्वबद्ध कर्मके उदयसे इस समय राग द्वेष आदि उत्पन्न हुए है, इनमें जो जीवकी आमारत और लगन होती है वह नतन कर्मबन्ध करती है। उस बद्ध कर्मके परिपाकके समय फिर राग द्वेष होते हैं, फिर उनमें आसक्ति और मोह होनेसे नया कर्म बंधता है। यहाँ इस शंकाको कोई स्थान नहीं है कि.---'जब पूर्वकर्मसे रागद्वेषादि तथा राग द्वेषादिसे नूतन कर्मबन्ध होता है तब इस चक्रका उच्छेद ही नहीं हो सकता, क्योंकि हर एक कर्म रागद्वेष आदि उत्पन्न करेगा और हर एक रागट्रेप कर्मबन्धन करेंगे।' कारण यह है कि पूर्वकर्मके उदयगे होनेवाले कर्मफलभूत रागद्वेष वासना आदिका भोगना कर्मबन्धक नहीं होता किन्त भोगकालमें जो नतन राग द्वेषरूप अध्यवसान भाव होते हैं वे बन्धक होते है। यही कारण है कि सम्यग्दष्टिका कर्मभोग निर्जराका कारण होता है और मिथ्याष्टिका बन्धका कारण । सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकर्मके उदयकालमें होनेवाले राग द्वेष आदिको विवेकपूर्वक शान्त तो करता है, पर उनमें नूतन अध्यवसान नहीं करता, अतः पुराने कर्म तो अपना फल देकर निर्जीर्ण हो जाते हैं और नूतन आसक्ति न होनेके कारण नवीन बन्ध होता नहीं अतः सम्यग्दृष्टि तो दोनों तरफसे हलका हो चलता है जब कि मिथ्यादृष्टि कर्मफलके समय होनेवाले राग द्वेष वासना आदिके समय उनमें की गई नित नई आसक्ति
और लगनके परिणामस्वरूप नूतन कर्मोको और भी दृढ़तासे बांधता है. और इस तरह मिथ्यावृष्टि का कर्मचक्र और भी तेजीसे चालू रहता है। जिस प्रकार हमारे भौतिक मस्तिष्कपर अनुभवकी असंख्य सीधी टेड़ी गहरी उथली रेखाएँ पड़ती रहती है, एक प्रबल रेखा आई तो उसने पहिलेको निर्बल रेखाको माफ कर दिया और अपना गहरा प्रभाव कायम कर दिया, दूसरी रेखा पहिलेकी रेखाको या तो गहरा कर देती है या साफ कर देती है और इस तरह अन्तमें कुछ ही अनुभव रेखाएँ अपना अस्तित्व कायम रखती हैं, उसी तरहं आज कुछ राग द्वेषादि जन्य संस्कार उत्पन्न हुए कर्मबन्धन हुआ, पर दूसरे ही क्षण शील वत संयम और श्रुत आदिकी पूत भावनाओंका निमित्त मिला तो पुराने संस्कार धुल जायगें या क्षीण हो जायेंगे, यदि दुबारा और भी तीव्र रागादि भाव हुए तो प्रथमबद्ध कर्म पुद्गलमें और भी तीन
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