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तत्त्वार्थवृत्ति
जा सकता। कोई ऐसा शब्द नहीं जो उसके पूर्ण रूपको स्पर्श कर सके । शब्द एक निश्चित दृष्टिकोण से प्रयुक्त होते हैं और वस्तुके एक ही धर्मका कथन करते हैं । इस तरह जब शब्द स्वभावत: विवक्षानुसार अमुक धर्मका प्रतिपादन करते हैं तब अविवक्षित धर्मोकी सूचनाके लिए एक ऐसा शब्द अवश्यही रखना चाहिए जो वक्ता या श्रोताको भूलने न दे । 'स्यात्' शब्दका यही कार्य है, वह श्रोताको वस्तुके अनेकान्त स्वरूप का द्योतन करा देता है । यद्यपि बुद्धने इस अनेकांशिक सत्यके प्रकाशनकी स्याद्वादवाणीको न अपनाकर उन्हें अव्याकृत कोटिमें डाला है, पर उनका चित्त वस्तुकी अनेकांशिकताको स्वीकार अवश्य करता था।
तत्त्वनिरूपण-- विश्वव्यवस्थाका निरूपण और तत्त्वनिरूपणके जदा जदा प्रयोजन है। विश्वव्यवस्थाका ज्ञान न होनेपर भी तत्त्वज्ञानसे मुक्तिसाधनापथमें पहुंचा जा सकता है। तत्त्वज्ञान न होने पर विश्वव्यवस्थाका समग्रज्ञान निरर्थक और अनर्थक हो सकता है। ममक्षके लिए अवश्य ज्ञातव्य प्रदार्थ तत्त्वश्रेणीमें लिये जाते है। साधारणतया भारतीय परम्परा हेय उपादेय और उनके कारणभूत पदार्थ इस चतुर्दूहका ज्ञान आवश्यक मानती रही है । आयुर्वेदशास्त्र रोग रोगनिदान रोगनिवृत्ति और चिकित्सा इन चार भागोंमें विभक्त है । रोगीके लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि वह अपनेको रोगी समझ । जबतक उसे अपने रोगका भान नहीं होता तबतक वह चिकित्साके लिए प्रवृत्त ही नहीं हो सकता। रोगका ज्ञान होने के बाद रोगीको यह विश्वास भी आवश्यक है कि उसका यह रोग छूट सकता है। रोगकी साध्यताका ज्ञान ही उसे चिकित्सामें प्रवर्तक होता है । रोगीको यह जानना भी आवश्यक है कि यह रोग अमुक कारणोंसे उत्पन्न हुआ है। जिससे वह भविष्यमें उन अपथ्य आहार विहारों से बचा रहकर अपनेको नीरोग रख सके । जब वह भविष्यम रोगके कारणोंसे दूर रहता है तथा मौजुदा रोग का औषधोपचारसे समूल उच्छेद कर देता है तभी वह अपने स्वरूपभूत स्थिर-आरोग्यको पा सकता है । अत: जैसे रोगमुक्ति के लिए रोग रोगनिदान आरोग्य और चिकित्सा इस चतुर्व्यहका ज्ञान अत्यावश्यक है उसीतरह भवरोगकी निवृत्ति के लिए संसार संसारके कारण मोक्ष और उसके कारण इन चार मूलतत्त्वोंका यथार्थज्ञान नितान्त अपेक्षीय है । बुद्धने कर्तव्यमार्ग के लिए चिकित्साशास्त्रकी तरह चार आर्यसत्यों का उपदेश दिया। वे कभी भी आत्मा क्या है ? परलोक क्या है ? आदिके दार्शनिक विवादमें न तो स्वयं गये और न शिष्योंको ही जाने दिया। उनने इस संबंध में एक बहुत उपयुक्त उदाहरण दिया है कि जैसे किसी व्यक्तिको विषसे बुझा हुआ तीर लगा हो । बन्धुजन जब उसके तीरको निकालनेकेलिए विषवैद्यको बुलाते हो, उस समय रोगीकी यह मीमांसा कि 'यह तीर किस लोहे से बना है? किसने इसे बनाया ? कब बनाया? यह कव नक स्थिर रहेगा? या जो यह वैद्य आया है वह किस गोत्रका है ? आदि' निरर्थक है उसीतरह आत्मा आदि तत्त्वोंका स्वरूपचितन न ब्रह्मचर्य साधनके लिए उपयोगी है न निर्वाणके लिए न शान्तिके लिए और न बौधि प्राप्ति आदिके लिए ही । उनने मुमुक्षुके लिए चार आर्यसत्योंका उपदेश दिया-दुःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध, और दुःखनिरोधमार्ग ।
दुःखसत्यको व्याख्या बुद्धने इस प्रकार की है-जन्म भी दुःख है, जरा भी दुःख है, मरण भी दुःख है, गोक, परिवेदन, मनकी विकलता भी दुःख है, इष्ट वियोग, अनिष्टसंयोग, इष्टाप्राप्ति सभी दुःख है । संक्षेप में पांचों उपादान रकन्ध ही दुःखरूप है।
दुःखसमुदय--कामकी तृष्णा, भवकी तृष्णा और विभवकी तृष्णा दुःखका कारण है । जितने इंद्रियोंके प्रिय विषय हैं प्रिय रूपादि है, वे सदा बने रहें उनका वियोग न हो इस तरह उनके संयोगके लिए चित्तकी अभिनन्दिनी वृत्तिको तृष्णा कहते हैं और यही तृष्णा समस्त दुःखोंका कारण है।
दुःख निरोध--इस तृष्णाके अत्यंत निरोध या विनाशको निरोध आर्यसत्य कहते हैं। १ दीर्घनि० महामतिपट्टान मुत्त ।
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