________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२
तत्त्वार्थवृत्ति नहीं दिया जा सकता। फिर इन प्रश्नोंके बारेमें कुछ कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्याके लिए उपयोगी नहीं और न निर्वेद, निरोध, शांति, परमज्ञान या निर्वाणके लिए आवश्यक है।
इस तरह बुद्ध जब आत्मा, लोक, और निर्वाणके सम्बन्धमें कुछ भी कहनेको अनुपयोगी बताते हैं तो उसका सीधा अर्थ यही ज्ञात होता है कि वे इन तत्त्वोंके सम्बन्धमें अपना निश्चित मत नहीं बना सके थे। शिष्योंके तत्त्वज्ञानके झगड़ेमें न डालनेकी बात तो इसलिए समझमें नहीं आती कि जब उस समयका प्रत्येक मतप्रचारक इनके विषयमें अपने मतका प्रतिपादन करता था उसका समर्थन करता था, जगह जगह इन्ही के विषयमें वाद रोपे जाते थे,तब उस हवासे शिष्योंकी बुद्धिको अचलित रखना दुःशक ही नहीं अशक्य ही था । बल्कि इस अव्याकृत कोटिकी सृष्टि ही उन्हें बौद्धिक हीनताका कारण बनती होगी।
बुद्धका इन्हें अनेकांशिक कहना भी अर्थपूर्ण हो सकता है । अर्थात् वे एकान्त न मानकर अनेकांश मानते तो थे पर चूंकि निग्गंठनाथपुत्त ने इस अनेकांशताका प्रतिपादन सियावाद अर्थात् स्याद्वादसे करना प्रारम्भकर दिया था, अत: विलक्षणशैली स्थापन के लिए उनने इन्हें अव्याकृत कह दिया हो । अन्यथा अनेकांशिक और अनेकान्तवादमें कोई खास अन्तर नहीं मालूम होता। यद्यपि संजयवेलठिपुत्त बुद्ध और निग्गंठनाथपुत्त इन तीनोंका मत अनेकांशको लिए हुए है, पर संजय उन अनेक अंशोंके सम्बन्धमें स्पष्ट अनिश्चयवादी है । वह साफ साफ कहता है कि यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ कि परलोक है या नहीं है आदि" । बुद्ध कहते हैं यह अव्याकृत है । इस अव्याकृति और संजय की अनिश्चितिमें क्या सूक्ष्म अन्तर है सो तो बुद्धही जानें, पर व्यवहारतः शिष्योंके पल्ले न तो संजय ही कुछ दे सके और न बुद्ध ही । बल्कि संजयके शिष्य अपना यह मत बना भी सके होंगे कि-इन आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका निश्चय नहीं हो सकता, किन्तु बुद्धशिष्योंका इन पदार्थों के विषयमें बुद्धिभेद आज तक बना हुआ है । आज श्री राहुल सांकृत्यायन बुद्धके मतको अभौतिक अनात्मवाद जैसा उभयप्रतिषेधी नाम देते हैं। इधर आत्मा शब्दसे नित्यत्वका डर है उधर भौतिक कहनेसे उच्छेदवादका भय है। किंतु यदि निर्वाणदशामें दीपनिर्वाणकी तरह चित्तसन्ततिका निरोध हो जाता है तो भौतिकवादसे क्या विशेषता रह जाती है ? चार्वाक हर एक जन्ममें आत्माकी भूतोंसे उत्पत्ति मानकर उनका भूतविलय मरणकालमें मान लेता है। बुद्धने इस चित्तसन्ततिको पंचस्कंधरूप मानकर उसका विलय हर एक मरणके समय न मानकर संसारके अन्तमें माना । जिस प्रकार रूप एक मौलिक तत्व अनादि अनन्त धारारूप है उस प्रकार चित्तधारा न रही, अर्थात् चार्वाकका भौतिकत्व एक जन्मका है जब कि बद्धका भौतिकत्व एक संसारका । इस प्रकार बुद्ध तत्त्वज्ञानकी दिशामें संजय या भौतिकवादी अजितके विचारोंमही दोलान्दोलित रहे और अपनी इस दशामें भिक्षुओंको न डालनेकी शुभेच्छासे उनने इनका अव्याकृत रूपसे उपदेश दिया। उनने शिष्योंको समझा दिया कि इस वाद-प्रतिवादसे निर्वाण नहीं मिलेगा,निर्वाणके लिए चार आर्यसत्योंका ज्ञान ही आवश्यक है । बुद्धने कहा कि दुःख, दुःखके कारण,दुःखनिरोध और दुःख निरोधका मार्ग इन चार आर्यसत्यों को जानो। इनके यथार्थ ज्ञानसे दुःखनिरोध होकर मुक्ति हो जायगी। अन्य किसी ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है।
निग्गठनाथपुत्त--निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र महावीर स्याद्वादी और सप्ततत्त्वप्रतिपादक थे। उनके विषय में यह प्रवाद था कि निग्गंठनाथपुन सर्वज्ञ सर्वदर्शी है, उन्हें सोते जागते हर समय ज्ञानदर्शन उपस्थित रहता है । 'ज्ञातपुत्र वर्धमानने उस समयके प्रत्येक तीर्थकरकी अपेक्षा वस्तूतत्त्वका सर्वांगीण साक्षात्कार किया था। वे न संजयकी तरह अनिश्चयवादी थे और न बुद्धकी तरह अव्याकृतवादी और न गोशालक आदिकी तरह भूतवादी ही। उनने प्रत्येक वस्तुको परिणामीनित्य बताया । आजतक उस समयके प्रचलित मतवादियोंके तत्त्वोंका स्पष्ट पता नहीं मिलता । बुद्धने स्वयं कितने तत्त्व र पदार्थ माने थे यह आजभी विवादग्रस्त है पर महावीरके तत्व आजतक निर्विवाद चले आए हैं । महावीरने वस्तुतत्त्वका एक स्पष्ट दर्शन प्रस्तुत किया उनने कहा कि-इस जगत्में कोई द्रव्य या सत् नया उत्पन्न नहीं होता और जो द्रव्य या सत् विद्यमान है उनमें प्रतिक्षण परिवर्तन
For Private And Personal Use Only