Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना पृथिवी-काय, आप-काय, तेज काय, वायु-काय,सुख,दुख और जीवन यह सात । यह सात काय अकृत० सुखदुग्खके योग्य नहीं हैं। यहां न हन्ता (-मारने वाला) है, न घातयिता (-हनन करनेवाला), न सुननेकाला, न सुनाने वाला, न जानने वाला, न जतलानेवाला । जो तीक्ष्ण शस्त्रसे शीश भी काटे (तो भी) कोई किमीको प्राणसे नहीं मारता । सातों कायोंसे अलग, विवर (-खाली जगह) में शस्त्र ( -हथियार ) गिरना है।" यह मत अन्योन्यवाद या शाश्वतवाद कहलाता था। (५) संजय वेलट्ठि पुत्तका मत था--"यदि आप पूछे,क्या परलोक है ? और यदि मैं समझू कि परलोक है, तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है । मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, मैं दुसरी नरहसे भी नहीं कहता, में यह भी नहीं कहता कि 'यह नहीं है', मैं यह भी नहीं कहता कि 'यह नहीं नहीं है।' परलोक नहीं है । पग्लोक है भी और नहीं भी०, परलोक न है और न नहीं है ० । अयोनिज (-औपपातिक) प्राणी है । आयोनिज प्राणी नहीं हैं, है भी और नहीं भी, न है और न नहीं हैं । अच्छे बुरे काम के फल है, नहीं हैं, है भी और नहीं भी, न है और न नहीं है । तथागत मरने के बाद होते हैं, नहीं होते है। यदि मझे ऐसा पूछे और मैं ऐसा समझू कि मरनेके बाद तथागत न रहते हैं और न नहीं रहते हैं तो मैं ऐसा आपको कहूँ। मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता।" मंजय स्पष्टतः संशयाल क्या घोर अनिश्चयवादी या आज्ञानिक था । उसे तत्त्वकी प्रचलित चतुष्कोटियों ममे एकका भी निर्णय नहीं था । पालीपिटकमें इसे 'अमराविक्षेपवाद' नाम दिया है। भले ही हमलोगोंकी समझमें यह विक्षेपवादी ही हो पर संजय अपने अनिश्चयमें निश्चित था (६) बद्ध--अव्याकृतवादी थे। उनने इन दस बातोंको अव्याकृत' बतलाया है। (१) लोक नशाश्वत है ? (२) लोक अशाश्वत है ? (३) लोक अन्तवान् है ? (४) लोक अनन्त है ? (५) वही जीव वही शरीर है ? (६) जीव अन्य और शरीर अन्य है ?(७) मरने के बाद तथागत रहते हैं ? (८) मरने के बाद तथागत नहीं रहते ? (९) मरने के बाद तथागत होते भी हैं नहीं भी होते ? (१०) मरने के बाद तथागन नहीं होते, नहीं नहीं होते ? ___ इन प्रश्नोंम लोक आत्मा और परलोक या निर्वाण इन तीन मुख्य विवादग्रस्त पदार्थोंको बुद्धने अव्याकृत कहा । दीघनिकायके पोट्टवादसुत्त में इन्हीं प्रश्नोंको अव्याकृत कहकर अनेकांशिक कहा है। जो व्याकरणीय हैं उन्हें एकांशिक' अर्थात एक सुनिश्चितरूपमें जिनका उत्तर हो सकता है कहा है। जैसे दुख आर्यसत्य है ही ? उसका उत्तर हो है ही' इस एक अंशरूपमें दिया जा सकता है। परन्तु लोक आत्मा और निर्वाणसंबंधी प्रश्न अनेकांशिक है अर्थात इनका उत्तर हां या न इनमें से किसी एकके द्वारा नहीं दिया जा सकता। कारण बुद्धने स्वयं बताया है कि यदि वही जीव वही शरीर कहते हैं तो उच्छेदवाद अर्थात् भौतिकवादका प्रसंग आता है जो बुद्धको इष्ट नहीं और यदि अन्य जीव और अन्य शरीर कहते हैं तो नित्य आत्मवादका प्रसंग आता है जो भी बुद्धको इष्ट नहीं था। बुद्ध ने प्रश्नव्याकरण चार प्रकार का बताया है--(१) एकांश (है या नहीं एकम) व्याकरण, प्रतिपच्छाव्याकरणीय प्रश्न, विभज्य व्याकरणीय प्रश्न और स्थापनीय प्रश्न । जिन प्रश्नोंको बुद्धने अव्याकृत कहा है उन्हें अनेकांशिक भी कहा है अर्थात् उनका उत्तर एक है या नहीं में १“सरसतों लोको इतिपि, असरसतो लोको इतिपि, अन्तमा लोको इतिपि, अनन्तवा लोको इतिपि, त जीव त सरीर इतिपि, अज जी अाज सरीर इतिपि, होत्ति तथागतो परम्मरणा इतिीप, होतिच न च होति च तथागतो पम्मरणा इतिपि, नेव होति न नहोति तथागतो परम्भरणा इतिपि।" -मज्झिमनि० चूलमालुक्यमुत्त। २ "कतमे च ते पोट्पाद मया अनेकसिका धम्मा देसिता पञ्जत्ता ? सस्सतो लोको ति बा पोहपाद मया अनेक सिको धम्मो देसितो कयतो । असरसतो लोको तिखो पोद्वपाद मया अनेकसिको..".---दोधनि०पोद्रपादसुत्त । For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 661