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तस्त्वज्ञान स्मारिका
[ खंड "ॐ नमः सिद्धम् " में इसी अर्ह का अर्ह उसका वाच्य-वाच्यार्थ, तात्पर्यार्थ, अनुपदस्थ ध्यान है।
मेयार्थ एवं प्रमेयार्थ है। इसीलिए तो कहा गया है "एकः शब्दः, यही अक्षर है, क्योंकि यह त्रिकालाबाध सम्यक् ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुग् है । यही अव्यय है, क्योंकि यह नाश को प्राप्त भवतीति ।" ( पातंजल महाभाष्य ) नहीं होता और यही अमृतरूप है, इसकी विद्या ___ यह अर्ह रूप सर्वज्ञ परमात्मा स्याद्वाद से ही अमरत्व की प्राप्ति होती हैशैली से मूर्त, अमूर्त, कला सहित, सूक्ष्म, स्थूल । “विद्ययाऽमृतमश्नुते" (उपनिषद्) व्यक्त, अव्यक्त, निगुर्ण, सगुण, सर्वव्यापी, देश- नामृतं ज्ञानतः परम् (अर्हद्गीता ३-६) व्यापी, अक्षय, क्षयवान् , अनित्य एवं नित्य आदि यही पद एवं उसकी ध्वनि मंत्रशास्त्र का १६ प्रकार के हैं, एवं नाभिकमल के १६ दलो | प्राण है । के प्रतीक है।
क्योंकि यही ध्वनि प्राणवायु को लेकर इसी अर्ह के रूपों के यदि युग्म बना | मनुष्य की चारों ओर एक तरंगमाला का निर्माण दिए जाय तो वे मूर्त-अमूर्त, अकला-सकला, करती है, जिसके अनुसार संसार परिणमित होता सूक्ष्म-स्थूल, आदि आठ युग्म बनेंगे जिन्हें मुख । है । इसे दार्शनिक भाषा में तदाकार वृत्ति कहते के अष्ट दल कमल की संज्ञा देंगे। हैं, एवं इसकी प्राप्ति " ॐ नमः सिद्धम् " की
अर्ह की चार मात्राएँ है जिसमें नाद, | उपासना से आसानी से की जा सकती है। बिन्दु एवं कला से परे ‘ब्रह्म' का तुरीय रूप
| "ॐ नमः सिद्धम् " का समग्र मंत्र ज्ञान भी समाविष्ट है। इसकी चारों मात्राएँ धर्म, | का प्रतीक है, एवं ज्ञान-प्राप्ति हेतु यह मंत्र है । अर्थ, काम, एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाली हैं। अर्हद्गीता में कहा गया है कि “नामृतं ___ इस प्रकार यह स्पष्ट हुआ कि 'ॐ नमः | ज्ञानतः परम्' अर्थात् ज्ञान से परे कोई अमृत सिद्धम् ' में जिस सिद्ध की उपासना की गई है | नही है । वह आद्य ज्ञान का उद्घाटक, उद्घोषक एवं | इसी ज्ञान से धर्म, दान, तप चारित्र एवं प्रकाशक वर्ण है।
करुणा मुदितादि भावना का प्रादुर्भाव होता समग्र संसार वर्णमय है, एवं वर्ण में ही | है। अन्ततः इसी ज्ञान से मोक्ष-प्राप्ति होती है । संसार समाया हुआ है।
'ॐ नमः सिद्धं ' का अर्हद्गीता में इस वर्ण का अर्थ है वः-तुम, न-नहीं हो अर्थात् | प्रकार विवेचन किया गया हैं :सब में मैं ही हूँ और यह निज स्वरूप ही आगे | “ जीवाजीवमयो लोकः कर्ताऽयं परमेश्वरः । जिन स्वरूप में परिणत होता है। इस व्युत्पत्ति । __ स्वरूपस्य स्वयं धर्ता, सिद्धः शुद्ध सनातनः ॥" से वर्ण अभेदात्मक संसार का प्रतीक है, एवं ।
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