Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 104
________________ प्राचीन भारत की जैन शिक्षा-प्रणाली लेखक : महोपाध्याय डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन रीडर, संस्कृत - प्राकृत एवं पालि - विभाग, विक्रमविश्वविद्यालय, उज्जैन, शिक्षा का उद्देश्य : भारत में प्राचीन काल में, शिक्षा का उद्देश्य, सदाचार की वृद्धि, व्यक्तित्व का विकास, प्राचीन संस्कृति की रक्षा, तथा सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों की शिक्षा देना था ।' छात्र जीवन : प्रायः छात्र अपने अध्यापकों के घर पर ही रहकर अध्ययन किया करते थे । कुछ धनी लोग नगर में भी छात्रों को भोजन तथा निवास देकर उनके अध्ययन में सहायक होते थे। अवकाश के समय आश्रम बंद हो जाते । अकाल मेघों के आ जाने पर, गर्जन, बीजली का चमकना, अत्यधिक वर्षा, कोहरा, धूल के तूफान, चन्द्र-सूर्यग्रहण आदि के समय प्रायः अवकाश हो जाया करता था। दो सेनाओं अथवा दो नगरों में आपस में युद्ध द्वारा नगर की शांति भंग हो जाने पर, मल्ल - युद्ध अथवा नगर के सम्मान्य नेता की मृत्यु हो जाने पर भी अध्ययन बन्द कर दिया जाता था। कभी, बिल्ली द्वारा चूहे का मारा जाना, रास्ते में अण्डे Jain Education International का मिल जाना, जिस जगह स्कूल है उस मुहल्ले में बच्चे का जन्म होना आदि तुच्छ कारणों से भी विद्याध्ययन का कार्य कुछ समय के लिए बन्द कर दिया जाता था। 3 जब छात्र अध्ययन समाप्त करके घर वापिस आते थे, तब अत्यन्त समारोह के साथ उसे सम्मान दिया जाता था । जैसे कि आर्य 'रक्षित' जब पाटलिपुत्र से अध्ययन समाप्त करके घर वापिस आया तो उसका राजकीय सम्मान किया गया। सारा नगर पताकाओं तथा वन्दवारों से सुसज्जित किया गया | आर्य 'रक्षित' को हाथी पर बिठाया गया तथा लोगों ने उसका सत्कार किया । उसकी योग्यता पर प्रसन्न होकर लोगोंने उसे दास, पशु, सुवर्ण- आदि द्रव्य दिया । आचार्य : अध्यापक का बहुत ही सम्मान किया जाता था । ' रायपसेणिय' में ३ प्रकार के आचाय का वर्णन है : १ कला के अध्यापक (कलायरिय) १- " एज्युकेशन इन एंशियेंट इंडिया” डॉ. आल्तेकर, पृष्ठ-३२६ २- उत्तराध्ययन टीका-८ पृ० १२४ । ४- उत्तराध्ययन टीका २ - १०२२ अ । १३ ३- ववहार भाष्य - ७-२८१-३१६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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