Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

View full book text
Previous | Next

Page 143
________________ तस्वज्ञान-स्मारिका की प्रदक्षिणा रूप अर्ध नारंगी के समान गोलाई | रण देते हैं । किन्तु पृथ्वी को स्थिर मान लेने भी सिद्ध हो जाती है। पर गणित की दृष्टि से कई कठिनाइयां उत्पन्न चर-अचर: होती है, सूर्य और चन्द्रमा की कक्षा तो अवश्य जैन-दृष्टि के अनुसार पृथ्वी स्थिर है। गोलाकार रहती है, किन्तु सूर्य से अन्य ग्रहों वर्तमान के भूगोल-वेत्ता पृथ्वी को चर मानते हैं। का मार्ग बड़ा जटिल हो जाता हैं जिसका यह मत-द्वैध्य बहुत दिनों तक विवाद का स्थल सरलता से हिसाब नहीं लगाया जा सकता। बना रहा। (इस हिसाब को जैनाचार्यों ने बड़ी सुगआइस्टीन ने इसका भाग्य पलट दिया। मता से लगाया है जिसे देख कर जर्मनी के "क्या पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है या बड़े बड़े विद्वान् G. R. D. G. schubieng स्थिर है ?" सापेक्षवाद के अनुसार कोई निश्चित प्रभृति शतमुख से प्रशंसा करते हैं) किन्तु सूर्य उत्तर नहीं दिया जा सकता। हम Denton को स्थिर मान लेने पर सब ग्रहों की कक्षा की पुस्तक Relativity से कुछ यहां भावार्थ | गोलाकार रहती है। जिसकी गणना बड़ी उपस्थित करते हैं : सुगमतासे ही हो सकती है ।' __ "सूर्य मण्डल के भिन्न-भिन्न ग्रहों में जो आपेक्षित गति है उसका समाधान पुराने 'अचल ___ आइन्स्टीन के अनुसार विज्ञान का कोई पृथ्वी' के आधार पर भी किया जा सकता है, | भी प्रयोग इस विषय के निश्चयात्मक सत्य का और 'कोपरनिकस' के उस नए सिद्धान्त के | पता नहीं लगा सकते'। आधार पर भी किया जा सकता है, जिसमें कि पृथ्वी को चलती हुई माना जाता है। ___ "सूर्य चलता हो अथवा पृथ्वी चलती हो . दोनों ही सिद्धान्त सही है और जो कुछ | किसी को भी चलायमान मानने से गणित में खगोल में हो रहा है उसका ठीक-ठीक विव- । कोई त्रुटि नहीं आएगी।" १-'जैन०१ अक्टूबर १९३४. लेखक:-श्रीमान् प्रोफेसर घासीरामजी M.S.C.-A.P.S. लन्दन । २-ज्यो• रत्ना ०-भाग १ पृ० २२८ ले० देवकीनन्दन मिश्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 141 142 143 144