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गुजरात का सारस्वत नगर पाटन और हिन्दी
[ १०३ देखते हैं, दोनों में उतना ही सादृश्य दिखलाई | हिन्दी में की है और उनकी भाषाको प्राचीन पडता है।
हिन्दी अथवा अपभ्रंश कहा है । यहाँ तक कि १३वीं, १४वीं शताब्दी की इस प्रकार एक ही सामान्य-साहित्य को हिन्दी और गुजराती में एकता का भ्रम होने | हिन्दी, अथवा गुजराती सिद्ध करने के प्रयत्न लगता है।
बराबर होते रहे हैं। इसी भाषा--साम्य के कारण वि. १७वीं अलग हो जाने और उसके स्वतंत्र-रुप शताब्दी के कवि मालदेव के 'भोजप्रबंध' और | से विकसित हो जाने के पश्चात् भी गुजराती 'पुरन्दरकुमार चउपई', 'जो वास्तव में हिन्दी कवियों का हिन्दी के प्रति परम्परागत प्रेम बना ग्रंथ हैं, गुजराती ग्रंथ माने जाते रहे हैं" रहा । यही कारण है कि वे स्व-भाषा के साथनिष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि
साथ हिन्दी में भी रचनाएँ करते रहे । हिन्दी १६वीं--१७वीं शती तक भारत के पश्चिमी भू
की यह दीर्घकालीन परम्परा उसकी सर्वप्रियता भाग में बसनेवाले अधिकांश कवि अपभ्रंश
और सार्वदेशिकता सूचित करती है । मिश्रित प्रायः एक-सी भाषा का प्रयोग करते । यहाँ तक कि इस परम्परा के निर्वाह हेतु थे । हाँ, प्रदेश-विशेष की भाषा का इन पर | अथवा अपने हिन्दी-प्रेम को अभिव्यक्त करने प्रभाव अवश्य था । हिन्दी, गुजराती और राज- | के लिए, कई गुजराती कवियों ने अपने गुजराती स्थानी का विकास शौरसेनी के नागर--अपभ्रंश | ग्रंथों में भी हिन्दी अवतरण उद्धृत किये हैं। से हुआ है।
उदाहरणार्थ नयसुन्दर के 'रूपचंद कुंवररास' यही धारणा है कि १६ वीं-१७वीं शती तथा 'नल दमयन्तीरास', 'गिरनार उद्धार रास' तक इन तीनों भाषाओं में साधारण प्रान्तीय 'सूरसुन्दरी रास', खंभात के जैन कवि ऋषभदास भेदको छोड विशेष अंतर नहीं दिखता। | के 'कुमारपाल रास', 'श्रोही सूरि रास', 'हित
श्री मोतीलाल मेनारियाने शारंगधर, असा- | शिक्षा रास तथा समयसुन्दर के 'नलदमयंती हत, श्रीधर, शालिभद्रसूरि, विजयसेनसूरि, | रास' आदि दृष्टव्य हैं। विनयचन्द्रसूरि आदि गुजराती-कवियों की गणना
___कनकसोम, माधुकीर्ति, गुणविनय, लब्धिराजस्थानी कवियों में की है।
मुनि, रत्ननिधान आदिने भी जिनचन्द्रसूरि की ' तथा इन्ही कवियों और उनकी कृतियों | प्रशस्ति में जो पद लिखे हैं, उनमें से कई पद की गणना हिन्दी साहित्य के इतिहासकारोंने । 'खडीबोली' में हैं
१. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, सप्तम् हि. सा स. कार्य विवरण भाग-२, पृ. ३. . २. हिन्दी भाषा का इतिहास, धीरेन्द्र वर्मा ।
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