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तत्वज्ञान स्मारिका २ शिल्प के अध्यापक (सिप्पायरिय) न करने की प्रतिज्ञा कर गुरु को शान्त करने ३ धर्म के अध्यापक (धम्मायरिय) का प्रयत्न करता था।
यह विधान था कि प्रथम दो आचार्यों के यह आवश्यक था कि छात्र कभी भी गुरु शरीर पर तैल मर्दन किया जाय, उन्हें पुष्प भेंट | के बगल में, सामने अथवा पीछे न बैठे, स्वाट किए जाय, उन्हें स्नान कराया जाय, उन्हें अथवा मंच पर बैठकर प्रश्न न करे किन्तु अपने सुन्दर-वस्त्रों से सुसज्जित किया जाय, उन्हें | आसन से उठकर गुरु के पास आकर दोनों योग्य पारिश्रमिक एवं पारितोषिक दिया जाय; |
हाथ जोड़कर गुरु से प्रश्न करे। इसी प्रकार धर्माचार्य का भी भोजन पान आदि अयोग्य विद्यार्थी भी हुआ करते थे । वे द्वारा योग्य सम्मान कर के उन्हें विविध प्रकार | गुरु से हमेशा हस्तताडन तथा पादताडन के उपकरणों से संतुष्ट किया जाय । । (खड्ड्डया, चपेड़ा) प्राप्त किया करते थे। वे वेत्र___आचार्य को ज्ञान की दृष्टि से पूर्ण योग्य ताडन भी प्राप्त करते थे तथा बड़े कठोर शब्दों होना आवश्यक था । यह भी आवश्यक था कि
से सम्बोधित किये जाते थे। अयोग्य विद्यार्थियों ( आचार्य, किसी छात्र द्वारा प्रश्न किए जाने पर
की तुलना दुष्ट बैलों से की गई है । वे गुरु की उसका पूर्ण सही एवं सन्तोषप्रद उत्तर दे तथा
आज्ञा का पालन नहीं करते थे । कभी कभी गुरु उसका असम्बद्ध उत्तर न दे ।
ऐसे छात्रों से थककर उन्हें छोड़ भी दिया
करते थे। योग्य छात्र वही था जो अपने आचार्य के उपदेशों पर पूर्ण ध्यान दे, प्रश्न करे, अर्थ समझे
छात्रों की तुलना पर्वत, घड़ा, चलनी, छन्ना तथा तदनसार आचरण करने का भी प्रयत्न | राजहंस, भस, भड़ा, मच्छर, जॉक, बिल्ली, करे। योग्य छात्र कभी भी गुरु की आज्ञा का
| गाय, दाल आदि पदार्थों से की गई है जो उल्लंघन नहीं करते थे, गुरु से असद् व्यवहार
उसकी योग्यता और अयोग्यता की और संकेत नहीं करते थे, झूठ नहीं बोलते थे, तथा गुरु |
करते हैं । की भाज्ञा का पालन करते थे । यदि वह देखता | - अध्ययनथा कि गुरु क्रोध में है तो दोनों हाथ जोड़कर अध्ययन दो प्रकार का था--धार्मिक और क्षमा प्रार्थनापूर्वक भविष्य में कभी भी अपराध । लौकिक । धार्मिक-अध्ययन में प्रधानतः जैन १-स्थानांग (३,१३५)
२-आवश्यक नियुक्ति (१३६) ३-वही (२२) ४-उत्तराध्ययन (१, १३, १२, ४१, १२, २२) । ५-वही (३८, ३, ६५-अ)
६-वही (२७, ८, १३, १६) ५-आवश्यक नियुक्त १३६, आवश्यक चूर्णि पृ० १२१-४, बृहतकल्प भाष्य, पृ० ३३४ ।
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