Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 78
________________ सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन [७१ नहीं हो सकता। इसलिए बौद्ध दर्शन का करता है । अभेद-प्राधान्य-वृत्ति या अभेदोपअन्यापोह "नास्ति' होकर भी अवक्तव्य है। चार से एक शब्द के द्वारा साक्षात् एक-धर्म वैशेषिक दर्शन के अनुसार सामान्य और विशेष का प्रतिपादन होने पर भी अखण्ड-रूप से दोनों स्वतन्त्र हैं । अस्ति और नास्ति होकर अनन्तधर्मात्मक सम्पूर्ण धर्मों का युगपत् कथन भी अवक्तव्य है । वे दोनों किसी एक शब्द के हो जाता है । इसको प्रमाणसप्तभंगी कहते हैं । वाच्य नहीं हो सकते और न सर्वथा भिन्न | | प्रश्न हो सकता है कि यह अभेद-वृत्ति या सामान्य विशेष में कोई अर्थ क्रिया ही हो सकती अभेदोपचार क्या वस्तु है ? वस्तु में जब कि है। इस प्रकार जैनदर्शन समस्त मूल-भंगों की | अनन्त धर्म हैं और वे परस्पर भिन्न हैं ! उन सब योजना अन्य-दर्शनों भी देखी जा सकती है। की स्वरूपसत्ता अलग-अलग हैं, तब उसमें प्रमाण सप्तभंगी अभेद किस प्रकार माना जा सकता है ? उसका प्रमाण-वाक्य को सकला देश और नय- मुख्य आधार क्या है ? वाक्य को विकलादेश कहते हैं । ये सातों ही समाधान यह है कि वस्तुतत्त्व के प्रतिपादन भंग जब सकलादेशी होते हैं तब प्रमाण वाक्य की अभेद और भेद ये दो शैलियाँ है । अभेदऔर जब विकलादेशी होते हैं । तब नयवाक्य शैली भिन्नता में भी अभिन्नता ढूंढती है, और कहलाते हैं । इसी आधार से सप्तभंगी के भी | भेदशैली अभिन्नता में भी भिन्नता की अन्वेषणा दो भेद हैं-प्रमाण-सप्तभंगी और नय-सप्तभंगी। करती है । अभेद-प्राधान्यवृत्ति या अभेदोपप्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं। किसी चार विवक्षित वस्तु के अनन्त-धर्मों को काल, भी एक वस्तु का पूर्ण रूप से परिज्ञान करने के | | आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार, गुणि -देशसंसर्ग लिए उन अनन्त- शब्दों का प्रयोग करना और शब्द की दृष्टि से एक साथ अखण्ड एक चाहिए। किन्तु यह न तो संभव है और न व्य वस्तु के रूप में उपस्थित करता है । इस प्रकार वहार्य ही है । अनन्त-शब्दों का प्रयोग करने | | एक और अखण्ड वस्तु के रूप में अनन्त-धर्मों के लिए अनन्तकाल चाहिए, किन्तु मनुष्य का को एक साथ कथन करनेवाले सकलादेश से जीवन अनन्त नहीं है । अतएव समग्र-जीवन में | वस्तु के सभी धर्मों का एक साथ समूहात्मक भी वह एक भी वस्तु का पूर्ण प्रतिपादन नहीं | ज्ञान हो जाता है। कर सकता, इसलिए हमें एक-शब्द से ही । जीव आदि पदार्थ कथंचित् अस्तिरूप है, सम्पूर्ण अर्थ का बोध करना होता है। यद्यपि । इसलिए अस्तित्व-कथन में अभेदावच्छेदक काल बाह्य-दृष्टि से ऐसा ज्ञात होता है कि वह एक | आदि बातों को इस प्रकार घटाया जाता हैही धर्म का कथन करता है, किन्तु अभेदोपचार (१) काल-जिस समय किसी वस्तु में वृत्ति से वह अन्य-धर्मों का भी प्रतिपादन | अस्तित्व धर्म होता है, उसी समय अन्य-धर्म भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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