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जैन साहित्य में भूगोल
डा. तेजसिंह गौड पीएच. डी. छोटा बझार उन्हेल (जि. उज्जैन म. प्र.)
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___ भारत के जैन विद्वानों और विशेषकर | परिभ्रमण प्रकाश क्षेत्र परिमाण, प्रकाश संस्थान, जैनाचार्यों ने जहां जैन धर्म एवं दर्शन सम्बन्धी | उदय स्थिति, चन्द्रमा की कला, ज्योत्स्ना बृहत्-ग्रन्थों का सृजन किया, वहीं उन्होंने अन्य परिणाम, शीघ्रगतिनिर्णय, ज्योत्स्ना-लक्षण, विषयों से सम्बन्धित ग्रन्थों की भी रचना की। चन्द्र-सूर्य आदि की ऊँचाई की चर्चा की
जैनाचार्यों ने जो ग्रंथ लिखे हैं, उनमें | गई है। उनकी अपनी मान्यताएं हैं।
छट्ठा उपांग जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (जम्बूदीव इसी प्रकार इन आचार्यों ने भूगोल से | पण्णत्ति ) है । इसके दो भाग है (१) पूर्वार्द्ध सम्बन्धित साहित्य का भी सृजन किया । जिसमें | और (२) उत्तरार्ध । उनकी अपनी मान्यताएं दिखाई देती हैं। प्रथम भाग के चार परिच्छेदों में जम्बूद्वीप
इस प्रकार के ग्रंथों में उर्व, मध्य एवं अधो- और भरत क्षेत्र का तथा उसके पर्वतों, नदियों लोकों का, द्वीपसागरों का, क्षेत्रों, पर्वतों तथा | आदि का उल्लेख है । नदियों आदि का स्वरूप व परिमाण विस्तृत रूप से । सातवाँ उपांग चन्द्र प्रज्ञप्ति है । चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा गणित की प्रक्रियाओं के आधार से वर्णन (चन्दपण्णत्ति ) सूर्य प्रज्ञप्ति से भिन्न है । इसमें किया गया है। हम यहाँ जैनमान्यताओं की चर्चा | ज्योतिष-चक्र का वर्णन है । न कर केवल कुछ उन ग्रंथों का उल्लेख करेंगे । दिगम्बर परम्परा में इस विषय का प्रथम जिनमें भूगोल विषय की चर्चा की गई है। ग्रंथ लोकविभाग प्रतीत होता है। जो मूल रूप
जैनधर्म में बारह उपांग माने गये हैं। में तो उपलब्ध नहीं है। किन्तु सिंहसूरि कृत जिसमें से पांचवाँ उपांग सूर्यप्रज्ञप्ति (सूरिय | संस्कृत-पद्यात्मक "लोकविभाग” में मिलता है। पण्णत्ति ) है । जिसमें २० पाहुड़ है, जिनके । यह मूल ग्रंथ अनुमानतः प्राकृत में ही अन्तर्गत १०८ सूत्रों में सूर्य, चन्द्र व नक्षत्रों | रहा होगा। की गतियों का विस्तृत वर्णन है ।।
। आ. कुन्दकुन्द कृत नियमसार की १७वीं इस ग्रंथ में मंडल गति, संख्या, सूर्य का | गाथा में जो "लोय विभागे सुणादर' रूप से
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