Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

View full book text
Previous | Next

Page 100
________________ भावना वर्गीकरण लेखक-पं. रमेशमुनि शास्त्री प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं-मन, वचन, बार-बार चिन्तन को एक विषय पर और काया । केन्द्रित करके, अर्थात् यों कहा जा सकता है ___ कभी प्रवृत्ति-स्रोत शुभ की ओर प्रवहमान | किसी एक वस्तु को केन्द्र बनाकर उस का पुनः होता है और कभी अशुभ की ओर भी। | पुनः चिन्तन करना। भावना ही प्रवृत्ति स्रोत को शुभ-अशुभ यही स्थिति "ध्यान" की बनती है । की ओर मोड देनेवाली है । इस के द्वारा ही अतः स्पष्ट है कि भावना का अग्रिम रूप कार्य की प्रवृत्ति होती है। तथ्य यह है कि । ध्यान है। भावना जीवन के प्रत्येक मोड पर प्रहरी के रूप इसी लिये आगम के अतिरिक्त भावना के में खडी रहती है। स्थान पर "अनुप्रेक्षा" शब्द का प्रयोग देखा ___ आगम-साहित्य में भावना के स्थान पर गया है। अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग भी प्राप्त होता है। भाव शब्द से "भावना" की निष्पत्ति हुई वहाँ अनुप्रेक्षा का अर्थ व्यक्त करते कहा है। भाव का अर्थ है-चित्त का अभिप्राय । गया है कि अन्तःकरण की परिणति-विशेष विचार अथवा ईक्षा का अर्थ दृष्टि अथवा देखना, इस अभिप्राय जब-जब भी मन में बार-बार उठने के पूर्व प्र उपसर्ग लगने पर अर्थ हुआ गहराई । लगते है, रमने लगते हैं तब वह भाव अर्थात् से किसी वस्तु पर चिन्तन करना। भावना का रूप धारण करता है यह भावना ___ जब चिन्तन आत्मा आदि उदात्त विषयों | शब्द चिन्तन, अध्यवसाय वासना और संस्कार के सम्बन्ध में चलता है, तब उसको अनुप्रेक्षा | आदि के रूप में भी व्यवहृत हुआ है। कहा जाता है। अनुप्रेक्षा का एक अर्थ यह भी किसी भी विषय का मनोयोग पूर्वक चिन्तन उपयुक्त है कि करना भावना है। चिन्तन करते करते वहीं १-क स्थानाङ्ग ४।१। ख-उत्तराध्ययन सूत्र-२९।२२। २-तत्त्वार्थ सूत्र ९७। ३-आचारांग टीका श्रत० १ अ० २ ऊ० ५ । ४-सूत्रकृतांग टीका अ० १ अ० १५ । ५-क अभिधान राजेन्द्र कोष भाग-५ पृ. ३९७ । ख आचारांग अ० १ अ० ८ ऊ. ६ टीका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144