Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

View full book text
Previous | Next

Page 98
________________ सुख मीमांसा? अतः सफलता का आधार मात्र 'इच्छा अनंतज्ञानी तीर्थकर परमात्मा फरमाते हैं और प्रयत्न' ही नहीं हैं, परन्तु इसके साथ ही | हैं कि अनुकूल जड-पदार्थ के संयोग में सुख वह प्रयत्न सम्यग् भी होना आवश्यक हैं। मानना यही संसारी जीव की घोर अज्ञानता ___बस ! इसी बात को हमें समझने का है, । है । क्योंकि सुख यह आत्मा का धर्म है-जड़ सुख की इच्छा है, सुख के लिए प्रयत्न भी हैं, का नहीं ! जिस वस्तु में जो धर्म अथवा स्वभाव अब मार्ग का भी सम्यग् होना आवश्यक है। होता है, उस धर्म अथवा स्वभाव का अनुभव ज्ञानी पुरुषोंने सुख के तीन लक्षण बताये हैं- हमें उसी वस्तु से संभव है-अन्य वस्तु से नहीं ! (१) शाश्वत (२) निरपेक्ष अर्थात् स्वाधीन और जल में शीतलता का धर्म है और अग्नि में (३) अनंत और अव्याबाध ! उष्णता का ! अतः यदि आपको शीतलता का उपरोक्त तीन विशेषणों से युक्त सुख को अनुभव करना हो तो पानी में हाथ डालना ही ज्ञानियोंने वास्तविक सुख कहा है । दुनियाँ । चाहिये, अग्नि में नहीं ! अग्नि में नहीं रहे हुए में रहे किसी भी बुद्धिमान पुरुष को पूछा जायेगा शीतत्व धर्म की प्राप्ति, यदि कोई अग्नि से प्राप्त तो वह इसी प्रकार के सुख को चाहेगा ! करना चाहे, तो वह व्यक्ति मूर्ख-शिरोमणि इस प्रकार के सुख की इच्छा होने पर भी ही कहलायेगा ! संसारी जीव का प्रयत्न क्या होता है ? वह भी तैल की प्राप्ति मूंगफली के दानों के पीसने हम देख लें। ___ मोह की अंधता के कारण संसारी जीव से हो सकती है, परन्तु मूंगफली के छिलकों को पीसने से नहीं । अर्थ तथा काम की पूर्ति में ही सुख की कल्पना करता है ! इन्द्रियों के वैषयिक सुख (जिसे उपरोक्त दृष्टांत द्वारा ज्ञानी भगवंत हमें यही ज्ञानियों ने दुःख रूप कहा है) में ही वह सुख | समझाते हैं कि सुख की प्राप्ति आत्मा से ही हो की कल्पना करके उसी की प्राप्ति के लिए वह सकती है, जड़ से नहीं । जड स्वयं अचेतन हैं, आकाश-पाताल एक करता है । धन की प्राप्ति अतः उसके धर्म अन्य हैं, परन्तु सुख देने का धर्म जड में नहीं हैं। के लिए वह तन-तोड महेनत करता है और उसके फल स्वरूप रसवती भोजन, सुगंधी पुष्पों शरीर, इन्द्रिय तथा आहार आदि जड की सुगंध, रूपवती स्त्री का रूप-दर्शन, मधुर पदार्थ हैं, उनमें से सुख-प्राप्ति की इच्छा यही व कर्णप्रिय संगीत और मैथुन-सेवन में ही वह अपनी अज्ञानता हैं । अनंतज्ञानी-महापुरुषों ने सर्वस्व सुख मान बैठता है ! अनुकूल विषय की | वैषयिक-सुख को दुःख रूप ही माना है, क्योंकि प्राप्ति होने पर राग करता है और प्रतिकूल वह सुख (१) क्षणिक हैं, (२) सापेक्ष अथवा विषय मिलने पर द्वेष करता है । विषय के संग पराधीन हैं और (३) अल्प और बाधायुक्त हैं । में आनंद अनुभव करता है और उसके विरह में | (१) जड पदार्थ क्षण-भंगुर हैं अर्थात् प्रतिअत्यंत दुःख को अनुभवता है । क्षण उनमें परिवर्तन होता ही रहता है ! नवीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144