Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

View full book text
Previous | Next

Page 82
________________ सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन पर्यायार्थिकता है वहाँ पर अभेदवृत्ति अपने आप और अवक्तव्य " ये तीन भंग सकलादेशी है होने से उपचार की आवश्यकता नहीं होती। और शेष चार भंग विकलादेशी है। आचार्य व्याप्य-व्यापक भाव शांति सूरिने न्यायावतार-सूत्रवार्तिक वृत्ति में, स्यादवाद और सप्तभंगी में व्याप्य और | अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य को सकलादेशी व्यापक भाव संबंध है। स्याद्वाद " व्याप्य" और अन्य चार को विकलादेशी कहा है । जैन है और सप्तभंगी " व्यापक" है । जो स्याद्वाद | | तर्क भाषा में उपाध्याय यशोविजयजी ने सातों है वह निश्चितरूप से सप्तभंगी होता ही है किंत ही भंगो को सकलादेशी और विकलादेशी दोनों जो सप्तभंगी है वह स्यावाद है भी, नहीं भी माना है । दिगंबराचार्य अकलंक, विद्यानन्दी है । नय स्याद्वाद नहीं है तथापि उसमें सप्त आदि सातों ही भंग को सकलादेश और विकभंगीय एक व्यापक धर्म है, जो स्याद्वाद और । लादेश रूप ही मानते हैं। नय दोनों में रहता है। जो आचार्य सत् , असत् और अवक्तव्य अनन्त भंगी नहीं | भंगों को सकलादेशी और शेष चार भंगों को विकलादेशी मानते हैं, उनका मन्तव्य है कि प्रथम प्रतिपादन किया जा चुका है कि जैन भंग में द्रव्यार्थिक दृष्टि से "सत्" रूप से अभेद दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होता है और उसमें सम्पूर्ण द्रव्य का ज्ञान हो है, इसलिए सप्तभंगी के स्थान पर अनन्तभंगी क्यों न मानी जाय ? उत्तर में निवेदन है कि जाता है । द्वितीय भंग में पर्यायार्थिक दृष्टि से समस्त पर्यायों में अभेदोपचार से अभेद मानकर प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं और प्रत्येक धर्म को लेकर एक-एक सप्तभंगो बनती है, अतएव असत् रूप से भी सम्पूर्ण द्रव्य का ग्रहण कर सकते हैं और तृतीय अवक्तव्य भंग में तो सामा. अनन्त-धर्मों की अनन्त सप्तभंगियों को जैन न्य रूप में भेद अविवक्षित हो है। इसलिए दर्शन स्वीकार करता है। यदि एक धर्म का सम्पूर्ण द्रव्य के ग्रहण में किसी भी प्रकार की एक भंग होता तो अनन्त धर्मों की अनन्तभंगी हो सकती थी किन्तु ऐसा तो नहीं । एक धर्मा कोई आपत्ति नहीं है। श्रित एक सप्तभंगी स्वीकार करने के कारण ___अभेदरूप से सम्पूर्ण द्रव्य-ग्राही होने से अनन्त धर्मों की अनन्त सप्तभंगियाँ ही संभव तीनों भंग सकलादेशी है और अन्य चार भंग हो सकती है। २७ सावयव तथा अंशग्राही होने से विकलादेशी है। आचार्य सिद्धसेन व अभयदेव सूरि का | कितने ही विचारक उपर्युक्त विचारधारा मन्तव्य है कि उक्त सप्तभंगी में “ सत्, असत् को महत्त्व नहीं देते हैं। उनका कथन है कि २७ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक १।६।५२ २८ सन्मति तर्क, सटोक पृ० ४४६ २९ पं० दलसुख मालवणिया सम्पादित पृ० ९४ ३० पूज्य गुरुदेव रत्नमुनि स्मृति ग्रंथ पृ० १३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144