________________
७४ ]
(६) गुणिदेश - गुणी का क्षेत्र प्रत्येक भाग प्रति गुण के लिए भिन्न होना चाहिए, नहीं तो दूसरे गुणी के गुणों का भी इस गुणिदेश से भेद नहीं हो सकेगा । अभिन्न नहीं मानने से एक व्यक्ति के सुख-दुःख और ज्ञानादि दूसरे व्यक्ति में प्रविष्ट हो जाएँगे, जो किसी भी प्रकार उचित नहीं है । इसलिए गुणिदेश से भी धर्मों का अभेद नहीं किन्तु भेद सिद्ध होता है ।
(७) संसर्ग - संसर्ग भी प्रत्येक संसर्गवाले के भेद से भिन्न हो मानना चाहिए । यदि संसर्गियों के भेद के होते हुए भी उनके संसर्ग में अभेद माना जाए तो संसर्गियों का भेद किस प्रकार घटित होगा ? लोकदृष्टि से भी पान, सुपारी, इलायची और जिह्वा के साथ भिन्न प्रकार का संसर्ग होता है, एक नहीं । इसलिए संसर्ग से अभेद नहीं अपितु भेद ही सिद्ध होता है ।
तत्त्वज्ञान - स्मारिका
(८) शब्द - प्रत्येक धर्म का वाचक शब्द भी पृथक्-पृथक् ही होगा । यदि एक ही शब्द समस्त धर्मों का वाचक हो सकता हो तो सब पदार्थ भी एक शब्द के वाध्य बन जाएँगे । ऐसी स्थिति में दूसरे शब्दों की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी, इसीलिए वाचक शब्द की अपेक्षा से भी वस्तुगत अनेक धर्मो में अभेदवृत्ति नहीं, भेदवृत्ति ही प्रमाणित होती है ।
प्रत्येक पदार्थ गुण और पर्याय स्वरूप है । गुण और पर्याय दोनों में परस्पर भेदाभेद संबंध है । जिस समय प्रमाण - सप्तभंगी से
२६ तचार्थ लोक वार्तिक ११६/५४
Jain Education International
पदार्थ का अधिगम किया जाता है, उस समय गुण- पर्यायों में कालादि से अभेद वृत्ति या अभेद का उपचार होता है और अस्ति अथवा नास्ति प्रभृति किसी एक शब्द से ही अनन्त गुण पर्यायों के पिण्ड स्वरूप अखण्ड पदार्थ का युगपत् प्रतिबोध होता है और जिस समय नयसप्तभंगी के द्वारा पदार्थ का अधिगम किया
२६
जाता है, उस समय गुण और पर्यायों में कालादि के द्वारा भेदवृत्ति या भेदोपचार होता है । और अस्ति, नास्ति प्रभृति किसी शब्द के द्वारा द्रव्यगत अस्तित्व या नास्तित्व आदि किसी एक विवक्षित गुण - पर्याय के मुख्य रूप से क्रमशः निरूपण होता है । विकलादेश नय है और सकलादेश प्रमाण है । नय वस्तु के एक धर्म का निरूपण करता है । और प्रमाण सम्पूर्ण धर्मो का युगपत् निरूपण करता है । नय और प्रमाण में मुख्य रूप से यही अन्तर है । प्रमाणसप्तभंगी में अभेदवृत्ति या अभेदोपचार को कथन होता है तो नयसप्तभंगी में भेदवृत्ति या भेदोपचार का निरूपण होता है । तात्पर्य यह है कि प्रमाण सप्तभंगी में द्रव्यार्थिक भाव है, इसलिए अनेक धर्मों में अभेदवृत्ति स्वतः है और जहाँ पर पर्यायार्थिक भाव का आरोप किया जाता है वहाँ अनेक धर्मों में एक अखण्ड अभेद प्रस्थापित (आरोपित) किया जाता हैं । जहाँ पर नयसप्तभंगी में द्रव्यार्थिकता है वहाँ पर अभेद में भेद का उपचार करके एक धर्म का मुख्य रूप से निरूपण किया जाता है और जहाँ पर
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org