Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 88
________________ ज्योतिष-विज्ञान [ ८१ ऐसे विचारों के द्वारा आचार्यों ने ज्योतिष- ज्योतिषशास्त्र के बृहज्जातक बृहत्संहिता, शास्त्र के सम्यक् ज्ञान के लिए छात्रों को | सिद्धान्त, शिरोमणि, लीलावती, केतकी, मान"त्रिस्कन्ध-विद्याकुशलः' अर्थात् सिद्धान्त संहिता सागरी बीजगणित आदि ग्रन्थों में ज्योतिषशास्त्र और होरा के ज्ञान में कुशल होने का | के प्रायः सभी अंगों पर प्रकाश डाला गया है। आदेश दिया। इस प्रकार से ज्योतिषशास्त्र भूत, भविष्य, यह प्रत्यक्ष सत्य है कि सृष्टि के आरंभ वर्तमान कालिक जीवन, प्रगति, आपत्ति, आदि से इस अनन्त ज्योतिर्जगत् में भारतीय आचार्य, सब तरह के फलादेशों से भरा ज्योतिषशास्त्र और ऋषि, मुनियों की सूझ ने ज्योतिष शास्त्र अभूतपूर्व खजाना है। के तत्त्वों को गवेषणा विश्व के हित साधने के वस्तु समर्थ, महर्ष, भूशोधन, जातक के लिए की। जीवनयात्रा में फलादेश, वास्तु, देवप्रतिष्ठा, शकुन, प्रभृति अनेक एसे खगोल, भूगोल, सूर्य, ___ यह शास्त्र भारतीय मानवीय-बुद्धिवैभव चन्द्र आदि नक्षत्रों की गति से संबद्ध यह महाका चमत्कृत मूर्तरूप है। | शास्त्र ज्योतिष-विज्ञान अतुलनीय और सराहभारतीय-विद्वानों ते कालपुरुष के शुभाशुभ नीय है । संकेत का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इस प्रत्यक्ष . इसी ज्योतिष शास्त्र के गणित-और फलित ज्योतिषशास्त्र का आधार लिया। विभाग द्वारा परोक्ष वस्तु को प्रत्यक्ष करने में अनेक युगों तक शोध चलती रही जो | ज्योतिष के विद्वान दैवज्ञ की उपाधि प्राप्त करते स्कन्धत्रय के रुप में हमारे समक्ष हैं। हैं और वैसे करने में ज्योतिषी पर्याप्त शक्तिशाली होते हैं। विविध मतान्तरों के वाद विश्वके निष्पक्ष ज्योतिषशास्त्र की गंभीरता, रहस्यमय तत्त्व, विद्वान भी आज एक मत से स्वीकार कर लिए और इसकी विशालता समस्त प्राणियों के लिए हैं कि-" ज्योतिषशास्त्र की गवेषणा का मूल महान् हितकारी है। आचार्य वराहमिहिर क्षेत्र भारतीय विद्वानों का है।" जैसे विद्वान पारंगत दैवज्ञ कहते हैं कियह सिद्धान्त वर्तमान युगमें निर्विवाद रूपसे ज्योतिषमागम-शास्त्रम् विप्रतिपत्तौ न योग्यमस्माकम् सिद्ध भी हो चुका है। स्वयमेव विकल्पयितुम् किन्तु बहूनां मतं वक्ष्ये ।। AINMISSIALATANAMAN Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,

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