Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 54
________________ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा [४७ अधर्म द्रव्य स्थिति का माध्यम है। "अधम्मं | उपस्थिति के कारण स्कन्ध-रचना की सम्भावना ठिदि जीव-पुग्गलाणं च०" (नियमसार)। | है, अतः उनमें भी उपचार से काय व माना जा जिसके कारण परमाणु-स्कन्ध की रचना | सकता है । पुनः उनमें अवगाहन-शक्ति भी मानी करते हैं, और स्कन्धरूप में संगठित रहते हैं, | गई है, अतः उनमें कायत्व या विस्तार है। जो आत्म-प्रदेशों को शरीर तक सीमित रखता यदि पुद्गल को अस्तिकाय नहीं माना है और विश्व की एक व्यवस्था में बांध कर जायेगा तो एक मूर्त-विश्व की सम्भावना ही रखता है वही अधर्म द्रव्य है। निरस्त हो जायेगी। विश्व को एक व्यवस्थित रचना बनाये रखने जीव-द्रव्य में यदि हम विस्तार की सम्भाके लिए यह आवश्यक है कि अधर्म-द्रव्य का | वना का अस्वीकार करेंगे तो कठिनाई यह होगी कि जीव अपने स्वलक्षण चैतन्य-गुण से अपने प्रसार लोकव्यापी माना जाय, अन्यथा विश्व के मूल घटक परमाणु अनन्त-आकाश में छितर शरीर को व्याप्त नहीं कर सकेगा । जावेगें और कोई रचना सम्भवित नहीं होगी। शरीर में चैतन्य का संकोच एवं विस्तार अतः जहाँ२ गति का माध्यम है, वहां वहां देखा जाता है, अतः उस चैतन्य-गुण के धारक उसका विरोधी स्थिति का माध्यम भी होना आत्मा विस्तारयुक्त या अस्ति काय मानना चाहिए, अन्यथा उस गति का नियंत्रण कैसे होगा ? आवश्यक है। शरीर का विस्तार तो बाल्य-काल से युवाविश्व में गति के संतुलन को और इस रूप वस्था तक प्रत्यक्ष रूप से देखा जाता है, यदि में विश्व के संतुलन को बनाये रखने के लिए | हम शरीर को विस्तारयुक्त और आत्मा को अधर्म द्रव्य को लोकव्यापी एवं विस्तार-लक्षण | विस्तार-रहित मानेंगे तो दोनों में जो सहचार युक्त अर्थात् अस्ति काय मानना आवश्यक है। भाव है, वह नहीं बन पायेगा। पुद्गल-द्रव्य में विस्तार है, यह तो प्रत्यक्ष इसीलिए वेदान्त ने आत्मा को सर्वव्यापी सिद्ध है, क्योंकि जिन पुद्गल-स्कन्धों का हमें मान लिया । यद्यपि आत्मा को सर्वव्यापी प्रत्यक्ष होता है, वे सब विस्तार-युक्त हैं, मानने के सिद्धान्त में भी अनेक तार्किक असंस्कन्ध की रचना हो परमाणुओं के तिर्यक | ॥ हा परमाणुओं के तियेक | गतियाँ हैं, किन्तु प्रस्तुत आलेख के सन्दर्भ से प्रचय से होती है, अतः वे कार्यरूप है ही। अलग होने के कारण उनकी चर्चा यहां अपेक्षित यद्यपि पुद्गल-द्रव्य के अन्तिम अविभाज्य | नहीं है । जैन-दर्शन में आत्मा शरीरव्यापी है, घटक वे परमाणु जो स्वयं तो स्कन्धरूप नहीं | अतः वह अस्तिकाय है । है, किन्तु उनमें भी स्नग्ध और रूक्ष गुणों । अब एक प्रश्न यह शेष रहता है कि काल ( Positive and Negative charges ) की । को अस्तिकाय क्यों नहीं माना जा सकता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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