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६० ] दूसरों के परिज्ञान के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है, अतः भंग का प्रयोग परार्थ है ।
अधिगम भी प्रमाण - वाक्य और नय-वाक्य के रूप में दो प्रकार का है । इसी आधार से प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी ये दो भेद किये गये हैं। प्रमाणवाक्य सकलादेश है, क्योंकि उससे समग्र - धर्मात्मक वस्तु का प्रधान रूप से बोध होता है । नयवाक्य विकलादेश है, क्योंकि उससे वस्तु के एक धर्म का ही बोध होता है। जैनदृष्टि से वस्तु अनन्त धर्मात्मक है ।
तत्त्वज्ञान - स्मारिका
आ. मल्लिषेण ने स्याद्वाद मंजरी में वस्तु की परिभाषा करते हुए लिखा - जिसमें गुण और पर्याय रहते हो वह वस्तु है । तत्त्व, पदार्थ और द्रव्य ये वस्तु के पर्यायवाची हैं।
आचार्य अकलंक ने सप्तभंगी की परिभाषा इस प्रकार की है- प्रश्न समुत्पन्न होने पर एक वस्तु में अविरोध - भाव से जो एक-धर्म विषयक विधि और निषेध की कल्पना की जाती है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है ।
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वस्तु के एक- - धर्म सम्बन्धी प्रश्न सात ही प्रकार से हो सकते हैं, इसलिए भंग भी सात ही हैं । जिज्ञासा सात ही प्रकार की होती है, इसलिए प्रश्न भी सात ही प्रकार के होते हैं। शंकाएँ भी सात ही प्रकार होती हैं, इसलिए जिज्ञासाएँ भी सात ही प्रकार की होती है । किसी भी एक ही धर्म के विषय में सात ही ४ सप्तभंगा तरंगिणी, पृ० १ ६ स्याद्वाद मंजरी कारिका २३ वृत्ति
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भंग होने से सप्तभंगी कहते हैं । गणित के नियम के अनुसार भी तीन मूल वचनों के संयोगी, असंयोगी और अपुनरुक्त ये सात भंग ही हो सकते हैं, न अधिक होते हैं न कम । भंग का अर्थ विकल्प, प्रकार और भेद हैं ।
सप्तभंगी और अनेकान्त
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वस्तु अनेकान्तात्मक है और उसको प्रतिपादित करनेवाली निर्दोष भाषा-पद्धति स्याद्वाद है । उसीमें सप्तभंगी का रहस्य रहा हुआ है । अनेकान्त - दृष्टि से हर एक वस्तु में सामान्य रूप से, विशेष रूप से, भिन्नता की अपेक्षा से, अभिन्नता की अपेक्षा से, नित्यत्व की दृष्टि से अनित्यत्व की दृष्टि से, सत्ता रूप में, असत्ता रूप में अनन्त धर्म है । प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में रहता है । दो प्रतिपक्षी धर्मों में परस्पर विरोध नहीं होता, क्योंकि वे अपेक्षा भेद से सापेक्ष होते हैं । इस प्रकार यथार्थ ज्ञान ही अनेकान्त दृष्टि का प्रयोजन है । अनेकान्त अनन्त धर्मात्मक वस्तु स्वरूप की एक दृष्टि है और स्यादवाद या सप्तभंगी उस मूल ज्ञानात्मक दृष्टि को अभिव्यक्त करने की अपेक्षा को सूचन करनेवाली एक वचन-- पद्धति है । अनेकान्त वाच्य है और स्यादवाद वाचक है, उसे समझाने का एक उपाय है । क्षेत्र की दृष्टि से अनेकान्त व्यापक है, विषय प्रतिपादन की दृष्टि से स्याद् - वाद व्याप्य है । दोनों में व्याप्य व्यापक भाव सम्बन्ध रहा हुआ है।
५ अन्ययोग व्यवच्छेदिका कारिका २२ ७ तच्चार्थ राजवार्तिक ११६/५१
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