Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 53
________________ तत्त्वज्ञान स्मारिका कठिनाई आयेगी और इसी प्रकार काल को, । आकाश विस्तरित है तो उसका विस्तार या जिसे अनस्तिकाय माना गया है, अस्तिकाय | प्रसार किसमें है ? या प्रसार-लक्षणयुक्त मानने पर क्या कठिनाई ___ वस्तुतः आकाश स्वतः ही विस्तीर्ण है। आयगी ? अन्य द्रव्य उसमें अवगाहन करते हैं, सर्व प्रथम यदि आकाश को प्रसारित विस्तरित होते हैं और गति करते हैं। विस्तार नहीं माना जायेगा तो उसके मूल लक्षण या तो उसका स्वलक्षण है। वह अन्य किसी में कार्य की ही सिद्धि नहीं होगी। विस्तरित नहीं होता। यदि उसके विस्तार या अवगाहन के लिए ___ आकाश का कार्य अन्य द्रव्यों को स्थान हम किसी अन्य द्रव्य की कल्पना करेंगे तो देना है, द्रव्यसंग्रह में कहा गया है अनन्तता के दुश्चक्र ( Fallacy of infinite ___"अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण regress ) में फँस आवेगे, अतः उसे स्वरूपतः आगासं" ही विस्तारवान या अस्तिकाय मान लिया है। अर्थात्-" जो जीवादि द्रव्यों को स्थान धर्मद्रव्य गति का माध्यम है । “गमण देता है वही आकाश है ।" णिमित्तं धम्म” (नियमसार) प्रसार या विस्तार तो आकाश का स्वरूप गति विस्तीर्ण-तत्त्व में ही सम्भवित है। लक्षण है । उसके अभाव में उसकी सत्ता ही । यदि धर्मद्रव्य गति का माध्यम है, तो उसे सम्भव नहीं होगी। उतने क्षेत्र में विस्तीर्ण या व्याप्त होना चाहिए यदि आकाश विस्तरित न होगा तो अन्य जिसमें गति की सम्भव है। द्रव्यों का स्थान कैसे दे पावेगा? अतः आकाश यदि गति का माध्यम स्वयं विस्तीर्ण या को विस्तार युक्त अथवा अस्तिकाय मानना प्रसारित नहीं होगा तो गति सम्भवित ही नहीं आवश्यक है । विस्तार की सम्भावना आकाश होगी। जैसे जल का प्रसार जितने क्षेत्र में होगा में ही सम्भव है। उतने ही क्षेत्र में मछली की गति सम्भवित होगी। उसी प्रकार धर्मद्रव्य का प्रसार जिस यदे आकाश स्वयं विस्तरित न होगा तो | क्षेत्र में होगा उसी क्षेत्र में पुद्गल और जीवों की उसमें अन्य-द्रव्यों का अवगाहन या विस्तरण गति सम्भवित होगी। कैसे होगा ? अब स्थिति, विस्तार, गति आदि अतः धर्म द्रव्य को विस्तारयुक्त या अस्तिकिसी प्रसारित या विस्तरित द्रव्य में ही सम्भव काय मानना आवश्यक है। है, अतः आकाश को विस्तारयुक्त (अस्तिकाय) गति लोक (universe) में ही सम्भव है मानना आवश्यक है। क्योंकि धर्मद्रव्य का विस्तार लोक तक यहां यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि यदि | सीमित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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