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वैदिक साहित्य में पृथ्वी विषयक विवरण [३१ आर्य विश्वा स्वपत्याग्नि
जिस प्रकार धुलोक स्थिर है, पृथ्वी स्थिर तस्थुः कृण्वानासो अमृत त्वायं गातुम् । । | है, यह सब जगत स्थिर है तथा ये पर्वत मह्य महिद्भ पृथिवी वितस्थे ।
स्थिर है। माता पुत्रेरदितिधत्य सेवेः ।
उस प्रकार यह प्रजाओं का रंजन करने
वाला राजा स्थिर है। (९।७८।९ ऋग्वेद)
वेद चार है जिनमें से ऋग्वेद तथा अथर्वजो अमरत्व-प्राप्ति के लिए मार्ग तैयार | वेद इन दोनों के अध्ययन से यह सिद्ध हो करते हैं, वे उत्तम कर्मों का अनुष्ठान करते हैं। | गया है कि
बडे वीर पुत्रों से युक्त (माता अदितिः) पृथ्वी स्थिर है। माता तथा खंडन के अयोग्य ( पृथिवी ) पृथ्वी यजुर्वेद में भी पृथ्वी स्थिर है विषयक ऋचा धारण-पोषण के लिए अपनो महिमा से विस्तत | है दखिए :हुई । वही हे अग्ने ! तू हवि खाता है ।
परतोऽपि तिसृणां धुलोक स्कम्भेमें विष्टमिते
प्रभू तिलोक-संस्तवः ।
यत्रोराट्र। योश्च भूमिश्च तिष्ठतः ।
यमनी दीप्ता चासि । स्कम्भ इदं सर्व मात्मनवद् ,
यत्र असि । यमती यत् प्राणान्निमिषच्चयत् ॥
ध्रुवा अक्षि धरित्री। (१०।८।२ अथर्ववेद) पशुसंस्तवः पूर्ववत् । सर्वाधार शक्ति से आश्रित होकर ही यह | इषेत्वो-जेत्वारम्यै । द्यो; और भूमि अपनी अपनी कक्षा में अव
त्वा पोषायत्वा । लोकं स्थित है।
ता इन्द्रमिति व्याख्यातम् ॥ स्कभ्भ में वह समाया हुआ है, जो आत्मा- (१४।२२। पृ. २६८ यजुर्वेद) वाला है, अर्थात् चैतन्यपूरित है, जो साँस | और अवलोकन के लिए---- लेता है, और आँख झपकता है।
ोस्ते द्योश्च रो तव अर्थात् जड-चेतनात्मक यह सम्पूर्ण संसार पृथिवी च अंतरिक्षं च वायुश्च । उसी सर्वाधार परमेश्वर में ही समाया हुआ है। छिद्रं पृणातु पूरयतु ते किं च । ध्रुवा द्यौः ध्रुवा पृथिवी
सूर्यश्च ते तव नक्षत्रेः ध्रुवं विश्वमिदं जगत् ।
सहलोकं स्थानं कृणोतु । ध्रुवाक्षः पर्वता इमें
साधुन्या साधुम् ध्रुवो राजा विशामयम् ।।
द्वितीयाथैया छान्दसः । (६८८ १ अथर्ववेद) । (३३।४३।पृ. ४४२ यजुर्वेद)
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