Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 46
________________ STAR वैदिक साहित्य में आत्म-तत्व विवेचन ले. डॉ. राम संजीवन त्रिपाठी एम. ए. (संस्कृत एवं दर्शन ) वेदान्ताचार्य - साहित्यरत्न विद्यावारिधि (पी एच., डी.) मार्ग-निर्देशक एवं चेतनाविज्ञान प्राध्यापक महर्षि वेदानुसंधान प्रतिष्ठानम्-नयी दिल्ली mednesedbasedootshdeebsthdchhshobshseseshishedd e sisamasoiedstseestostee shahesh bstershdoot भारत को प्राचीनकाल से धर्मगुरु, अध्या- इस प्रकार यदि यह कहा जाय कि-वेदों स्मगुरु या जगद्गुरु पद से अभिहित किया के त्रिविद्यार्थ विवेचन में, आध्यात्मिक अर्थ की जाता रहा है। दृष्टि से मात्र आत्म तत्त्व का विश्लेषण ही वेदों __इसका मुख्य आधार “ अध्यात्म-चिन्तन" | का विशेषतः वेदो के अन्तिम भाग (उपनिषदों) अथवा आत्मचिन्तन की गंभीरता और आत्मज्ञान में वेदान्त का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है तो कोई का विस्तार है। यह चिन्तन वेदों में मौलिक असंगत बात नहीं होगी। एवं विस्तृत रूप में मिलता हैं । वेदों को समस्त ऋग्वेद के दशम मण्डल के १२९वें सूक्त ज्ञान का भण्डार माना गया है और “वेद" | में पहली बार एकतत्त्ववाद का दर्शन होता है। शब्द का व्युत्पत्ति लब्ध अर्थ भी “ ज्ञान" है, जहाँ " कस्मै देवाय हविषा विधेम " के जो आत्म-ज्ञान या ब्रह्मज्ञान का समानार्थक है। रूप में जिज्ञासा कर के सृष्टि के देवता प्रजा अध्यात्मवादियों ने तो प्रत्येक ऋचा (वेद- | पति को “ हिरण्यगर्भ" नाम से एकमात्र तत्त्व मन्त्र) में उस तत्त्व का मूलतः दर्शन किया, जिसे म तत्व का मलतः दर्शन किया जिसे के रूपमें स्वीकार किया गया । आत्मज्ञान या ब्रह्मदर्शन कहते हैं । __इसो मण्डल के एक सौ नब्बेवें सूक्त में __ वेदों में प्रमुख ऋग्वेद की पहली ऋचा में विराट् पुरुष की कल्पना भी एक तत्त्व की इयत्ता ही उक्त प्रमाण मिल जाता है । यथा - का पोषण करती है। ___ " अग्नि मीले पुरोहितम् ” में “ अग्नि" | किन्तु इसे समष्टिभूत आत्मा के रूप में शब्द का "अ" वर्ण वैयाकरणों और आत्म- | माना गया है । यथावेत्ताओं के मत में ब्रह्म का वाचक है। " पुरुष एवेदं सर्वं यद भूतं यच्च भाव्यम् । गीता का " अक्षराणाम् अकारोऽस्मि" | उतामृतरत स्मशानो पदेन्नेनातिरोहति ॥" वचन भी इस तत्त्व का पोषण करता है। हिरण्यगर्म और विराट्पुरुष के अतिरिक्त इसके अतिरिक्त आत्मम् शब्द में प्रथम वर्ण | वैदिक-दर्शन में ऋग्वेद से उपनिषदों तक, दो "अ" ऋग्वेद की प्रथम ऋचा का प्रथम वर्ण है। अन्य समानार्थक सत्ताओं को वैदिक-साहित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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