Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 29
________________ __“ नाद विन्दु कला" HA. (रहस्यात्मक विवेचन) __ ले. दिव्यज्ञानी কককককককককককককককককককককককককককককৰ ৰুৰুৰুকৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুকৰুৰুৰুৰুৰুকককককক दार्शनिक जगत में नादि-बिन्दु एवं कला | में अनुगुंजित अनाहत-नाद में विलयन प्राप्त का अत्यधिक महत्त्व प्रतिपादित किया गया है | करता है। और इन्हें ॐ की क्रमशः व्युत्पत्ति, अर्थापत्ति एवं तब प्रश्न यह उठता है कि नाद क्या है ? व्याप्ति ही माना गया है। ॐ चिन्दु-नाद एवं एवं उसका स्थान कौन-सा है ? कला से समन्वित है। ___नाद शब्द बना है 'नद' धातु से, जिस एवं संसार के संचलन एवं विलयन दोनों इसीमें समाए हुए हैं । नाद जब व्याप्त होना का अर्थ है शब्द करना-कलकल ध्वनि करनाचाहता है तो नाद नाभिमंडल में अनुगुंजन गरजना । इस धातुको घञ् प्रत्यय लगकर शब्द सिद्ध हुआ नाद, जिसका अर्थ है ध्वनि । करता है फिरसृष्टि क्रम-कण्ठ स्वरूप बिन्दु से अभिव्यक्त | मातृका-शास्त्र में इसे वर्णोंको अव्यक्त मूल होकर संसार में कलारूप में प्रगट होता है। | रूप कहते हैं, और योगशास्त्र में इसे अनुनासिक ___ संहार क्रम-और जब लय होना चाहता है ध्वनि कहते हैं, जिसे हम चन्द्र-बिन्दु के द्वारा तो त्रिगुणात्मक-त्रिकलात्मक संसारको समेटकर | प्रगट करते है। सोऽहं, अहँ अथवा ॐ के उच्चारण (-भाष्य- | दर्शनशास्त्र इसे अनाहत नाद "ध्वनि' कहता जाप से थककर उपांशु जाप (बिन्दु) का सहारा | है, जो साधना की उच्च अवस्था में कर्णलेकर अन्त में मानस जापके द्वारा नाभिमंडल | गह्वरों में निनादित होती है । x - संगीत-रत्नाकर में नाद की परिभाषा देते हुए कहा गया है __ नकारं प्रागनामानं दकारमनलं विदुः । जातः प्रागातिसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते ।। अर्थात् नाद को मूल धातु है नद् । नद् का नकार प्राणवाचक तथा दकार अग्निवाचक है । अतः जो अग्नि एवं प्राणवायु के योग से उत्पन्न होता है । इसका यह तात्पर्य हुआ कि नाद जीव की मूल प्राणशक्ति है, जो नाभि में निवास करती है । यह नाद दो प्रकार का होता है-आहत तथा अनाहत । यह नाद पिण्ड में प्रकाशित हो रहा है अत: इसे पिण्ड भी कहा जाता है । आहतोऽनाहतश्चेति द्विधा नादो निगद्यते। सोऽयं प्रकाशते पिण्डे तस्मात् पिण्डोऽभिधीयते । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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