Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 10
________________ निराकुल करने के लिए आवक या मुनि का चारित्र पालन करना ही चाहिए मन सम्कदर्शनरूपी नौका/सम्यग्ज्ञानरूपी जल/सम्यकचारित्र रूपी खिवैया तभी भवसागर से तिरोगे। विश्वास रीति समझना व्यापार करना वचन काय मौत के मुंह में हूँ और मेरी उम्र क्षण भर भी नहीं है ऐसा सोचकर मनुष्य को यथा सम्भव जप, तप, संयय, स्वाध्याय, पूजा, दानादि का आचरण करते रहना चाहिए। सारांश में ध्यान ही मुक्ति का कारण है ! जो शरीर इन्द्रिय मन और वचन में आत्मबद्धि/ममकार व अहंकार बुद्धि रखता है वह बहिरात्मा आत्मविमुख ध्यान करने में असमर्थ है। जो शरीर व आत्मा में भेद करता हुआ सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र से युक्त होकर प्रमाण, नय और निक्षेप के आषय से जीवादि नौ पदार्थों, सात तत्वों, छह द्रव्यों और पांच अस्ति: कायों के साथ शरीर व मात्मा के भेद को जानता है अन्तरंगबहिरंग परिग्रह रहित ऐसा अन्तरात्मा ही परमात्मा के ध्यान में समर्थ होता है। सम्यग्ज्ञानी श्रीव के मोह क्षोभ से रहित बाह्य और अभ्यन्तर क्रियाओं का निरोध ही साम्यभाव/सम्यक्धारित्र है जो मुक्ति का साक्षात् मार्ग है। ध्यान के चार प्रकार में-१. बासंध्यान, २. रोदध्यान

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