Book Title: Swami Kartikeyanupreksha
Author(s): Jaychandra Pandit
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 8
________________ आगरेकी प्राचीन व्रजभाषाके गथपद्यमें ही हैं. यदि इस प्राचीन हिंदी सा. हित्यको सर्व साधारणमें प्रचार नहिं करके सर्वथा आजकलकी नवीन गढी हुई भाषामें ही अनुवादके गूंथ छपाये जायगे तो कहांतक अनुवाद किया जायगा क्योंकि प्रथम तो प्राचीन भाषाके गूथ बहुत हैं. दूसरे-हमारी क्षुद्रजैनसमाजमें ऐसे बहुत कम विद्वान हैं जो प्राचीन हिंदी साहित्यके समस्त विषयों के सैंकडों गूंथोंका नयी हिंदीमें अनुवाद कर सक्ते हो. तीसरे ऐसा कोई समझदार धर्मात्मा धनाढय सहायक भी तो नहीं दीखता, जो सबसे पहिले करने योग्य जिनवाणीके जीर्णोद्धार करने में पुण्य वा नामवरी समझता हो. जब समस्तप्रकारके प्राचीन हिंदी जैनगंथोंके अनुवादपूर्वक प्रकार वित करनेका बर्तमानमें कोई साधन नहीं है और उपदेशकोंके द्वारा पाठशालायें स्थापन करनेका प्रचार बढाया जाता है तो कुछ ग्रन्थ प्राचीन भाषाके भी छापकर सर्व साधारणको इस भाषाके जानकार कर देना ब. हुत लाभ दायक हो सकता है क्योंकि नयी भाषाकै अन्धोंकी प्राप्ति नहीं होगी तो प्राचीन भाषाका ज्ञान होनेसे हस्तलिखित प्राचीन भाषाके ग्रंथोंकी स्वाध्याय करके ही हमारे जैनीभाई ज्ञानप्राप्ति कर सकेंगे. परंतु-यह भाषा कुछ मराठी गुजरातीकी तरह सर्वथा पृथक भी तो नहीं हैं ? हम जहांतक विचारते हैं तो कोई २ ठेठ ढुंढाडी शब्द होने तथा द्वितीया पं. चमी आदि विभक्तिव्यवहारका किंचिन्मात्र विभेदरूप होनेके सिवाय कोई भी दोष इस भाषामें दृष्टिगोचर नहिं होता. किन्तु आजकलकी नवीन हिंदी भाषामें बहुभाग लेखकगण व वंग भाषाके अनुवादकगण संस्कृत शब्दोंकी इतनी भरमार करते हैं कि उस भाषाको पश्चिमोत्तरप्रदेशके काशीप्रयागादि मुख्य २ शहरोंके सिवाय ग्रामनिवासी, मारवाडी ( राजपूतानानिवासी) गुजराती आदि कोई भी नहीं समझ सके. ऐसा दोष इस प्राचीन जयपुरी

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