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संतुलन और स्वास्थ्य ..
रोग का प्रारम्भ स्वयं की असजगता
जिस प्रकार यदि परिवार का कोई सदस्य छोटी मोटी भूलें करता है तो परिवार का मुखिया उसको बाहर प्रचारित नहीं करता। ठीक उसी प्रकार शरीर भी रोगों के लक्षणों को प्रारम्भिक अवस्था में बाह्य रूप से प्रकट नहीं करता। परन्तु हमारे अज्ञान, अविवेक, असजगता एवं शरीर में होने वाले असंतुलन की लगातर उपेक्षा . के कारण जब रोग व्यापक रूप धारण कर लेता है, तब ही रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं और हम उपचार की आवश्यकता समझते हैं। बाह्य रूप से प्रगट होने के पूर्व रोग के लक्षण अपनी अपनी भाषा में बार-बार चेतावनी देते हैं। परन्तु असजग व्यक्ति उन्हें सुनने तथा समझने का प्रयास ही नहीं करते, अपितु पूर्ण उपेक्षा के साथ गौण कर देते हैं।
शरीर के असन्तुलन से सबसे पहले चित्त की प्रसन्नता कम होती है। उसके पश्चात् मन और मस्तिष्क में नकारात्मक सोच आने लगती है। तत्पश्चात् . रोग के लक्षण शरीर पर प्रगट होने लगते हैं। शरीर की तुलना हारमोनियम अथवा वीणा से की जा सकती है। यदि हारमोनियम व वीणा का कोई तार ढ़ीला या तंग हो तो स्वर बेसुरा निकलता है। ठीक उसी प्रकार जब तक चित्त, मन और शरीर सन्तुलित नहीं होता, पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति नहीं हो सकती।
- हमारे तंत्र, ग्रन्थियां और ऊर्जा चक्र, अवयव अपनी पूर्ण क्षमता से कार्य नहीं कर पाते, परिणामस्वरूप शरीर की शक्ति क्षीण होने से असंतुलन अथवा अस्वस्थता पैदा होने लगती है। शरीर की चाल बदल जाती है और बाह्य शारीरिक विकास असंतुलिन होने लगता है। जैसे मोटापा अथवा शरीर का बेढंगा होना। उठने, बैठने, खड़े रहने, सोने अथवा चलने फिरने के गलत ढंग से शरीर की प्रक्रियाओं पर प्रतिकूल. प्रभाव पड़ता है।
शारीरिक क्रियाओं का वर्गीकरण जीवित शरीर मुख्य रूप से दो प्रकार की क्रियाओं से संचालित होता है।
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