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जो अकरणीय हैं, उनको छोड़ें बिना जीवन का विकास हो नहीं सकता। पातंजलि ने ऐसे पांच यमों को योग की आधारशिला माना है। ये पांच यम हैं हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन या व्याभिचार तथा अपरिग्रह का त्याग । मनुष्य की सारी प्रवृत्तियाँ तीन करण द्वारा होती हैं। जैसे स्वयं किसी कार्य को करना, दूसरों से किसी कार्य को करवाना तथा तीसरा कार्य करने वालों की अनुमोदना या प्रशंसा करना। उसके साथ तीन में से कोई न कोई योग अवश्य होता है। ये तीन योग हैं, मन का योग, वचन का योग और काया का योग । जैसे किसी कार्य को मन से करना, वाणी से करना, . काया से करना । अन्य से करवाना अथवा कार्य करने वालों की मन, वाणी या काया से अनुमोदन करना, सहयोग देना । बिना कारण और योग के कार्य हो नहीं सकता । किसी प्रवृत्ति के लिए कम से कम तीन करण और तीन योग में से एक करण और एक योग का होना अनिवार्य होता है। सच्चा साधक इन पाँचों यमों का पूर्ण रूप से तीन करण और तीन योग से जीवन भर पालन करता है। उसके लिए संकल्प बद्ध होता है । अत: उनके व्रतों का महाव्रत कहते हैं। जैसे-जीवन पर्यन्त मन, वचन और काया से किसी जीव को न तो स्वयं कष्ट पहुँचाना, न किसी अन्य व्यक्ति से कष्ट पहुँचाने में सहयोगी बनना ओर न प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से किसी भी चेतनाशील प्राणी को कष्ट पहुँचाने वाले को प्रोत्साहित करना, अच्छा न मानना ही हिंसा का पूर्णतः त्याग होता है। हिंसा-अहिंसा को जानने के लिए जीव क्या है ? अजाव क्या है? का जानना, समझना आवश्यक है? उसके बिना पूर्ण अहिंसा का पालन कैसे संभव हो सकता है? परन्तु आज के मानव ने हिंसा को मात्र मानव तक सीमित कर दिया है। स्वार्थवश अन्य जीवों को कष्ट पहुँचाते उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता । वनस्पति और पानी में भी आधुनिक विज्ञान ने जीव माना है परन्तु उनका दुरूपयोग करते प्रायः अधिकांश अहिंसक कहलाने वाले मानव तनिक भी नहीं हिचकिचाते। पृथ्वी, वायु और अग्नि में भी जीव होते हैं। अतः उनका कैसे उपयोग किया जाये, जानना और समझना आवश्यक हैं। :
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*मन में जैसा सम्यक् ज्ञान से सोचा समझा हो, आंखों से जैसा जो कुछ देखा हो और कानों से जैसा जो कुछ सुना हो उसे ठीक वैसा ही अभिव्यक्त न करना झूठ कहलाता है और वैसा ही प्रस्तुतिकरण करना सत्य कहलाता है। किसी की वस्तु को बिना पूछे लेना चोरी कहलाता है । समस्त इन्द्रियों के विषय विकारों पर संयम न रखना असंयम कहलाता है और उनका संयम ब्रह्मचर्य होता है। जबकि परिग्रह का मतलब धन, परिवार और अन्य भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति भाव या लगाव होना । अतः योगाभ्यास करने से पूर्व प्रत्येक साधक के लिए इन दुर्गुणों को त्याग कर अहिंसा, सन, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन आवश्यक होता है । जो योग की सफलता की आधारशिला है ।
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