Book Title: Swadeshi Chikitsa Swavlambi aur Ahimsak Upchar
Author(s): Chanchalmal Choradiya
Publisher: Swaraj Prakashan Samuh

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Page 66
________________ शीघ्र ठीक हो सकता है। ठीक इसी प्रकार भूख के समय जठराग्नि, भोग के समय कामाग्नि और क्रोध..उत्तेजना के समय प्रायः मानसिक गर्मी अधिक होती है। अतः ऐसे समय चन्द्र स्वर को सक्रिय रखा जावे तो उन पर सहजता से नियन्त्रण पाया जा सकता है। . . - शरीर में होने वाले जैविक रसायनिक परिवर्तन जो कभी शान्त और स्थिर होते हैं तो कभी तीव्र और उग्र भी होते हैं। जब शरीर में ताप असंतुलन होता है तो शरीर में रोग होने लगते हैं। अतः यह प्रत्येक व्यक्ति के स्वविवेक पर निर्भर करता है कि उसके शरीर में कितना तापीय असंतुलन है और उसके अनुरूप अपने स्वरों का संचालन कर अपने आपको स्वस्थ रखें । जब दोनों स्वर बराबर चलते हैं, शरीर की आवश्यकता के अनुरूप चलते हैं। तब ही व्यक्ति स्वस्थ रहता है। . दिन में सूर्य के प्रकाशं और गर्मी के कारण प्रायः शरीर में गर्मी अधिक रहती है। अतः सूर्य. स्वर से सम्बन्धित कार्य करने के अलावा जितना ज्यादा चन्द्र : स्वर सक्रिय होगा उतना स्वास्थ्य अच्छा होता है। इसी प्रकार रात्रि में दिन की अपेक्षा ठण्डक ज्यादा रहती है। चांदनी रात्रि में इसका प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है। श्रम की कमी अथवा निद्रा के कारण भी शरीर में निष्क्रियता रहती है। अतः उसको संतुलित रखने के लिए सूर्य स्वर को अधिक चलाना चाहिए। इसी कारण जिन व्यक्तियों के दिन में चन्द्र स्वर और रात में सूर्य स्वर स्वभाविक रूप से आधिक चलता है, वे मानव दीर्घायु होते हैं। चन्द्र और सूर्य नाड़ी का असन्तुलन ही थकावट; चिंता तथा अन्य रोगों को जन्म देता है। अतः दोनों का संतुलन और सामन्जस्य स्वस्थता हेतु अनिवार्य है। चन्द्र नाड़ी का मार्ग निवृति का मार्ग है, परन्तु उस पर चलने से पूर्व सम्यक् । सकारात्मक सोच आवश्यक है। इसी कारण पातंजली योग और कर्म निर्जरा के भेदों में ध्यान से पूर्व स्वाध्याय की साधना पर जोर दिया गया है। स्वाध्याय के अभाव में .. नकारात्मक निवृत्ति का मार्ग हानिकारक और भटकाने वाला हो सकता है। आध यात्मिक साधको को चन्द्र नाड़ी की क्रियाशीलता का विशेष ध्यान रखना चाहिये। . लम्बे समय तक रात्रि में लगातार चन्द्र स्वर चलना और दिन में सूर्य स्वर चलना, रोगी की अशुभ स्थिति का सूचक होता है और उसकी आयुष्य चन्द मास ही शेष रहती है। .. सूर्य नाड़ी का कार्य प्रवृत्ति का मार्ग है। यह वह मार्ग है जहां अन्तर्जगत गौण होता है। व्यक्ति अपने व्यक्तिगत लाभ तथा महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु कठिन . परिश्रम करता है। कामनाओं और वासनाओं की पूर्ति हेतु प्रयत्नशील होता है। इसमें चेतना अत्यधिक बहिर्मुखी होती है। अतः ऐसे व्यक्ति आध्यात्मिक पथ पर सफलता . पूर्वक आगे नहीं बढ़ पाते। चन्द्र और सूर्यनाड़ी के क्रमशः प्रवाहित होते रहने के कारण ही व्यक्ति . . 65 .

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