Book Title: Swadeshi Chikitsa Swavlambi aur Ahimsak Upchar
Author(s): Chanchalmal Choradiya
Publisher: Swaraj Prakashan Samuh

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Page 52
________________ वहन करते हैं। पगथली से लेकर गुदा तक पृथ्वी तत्त्व शरीर में अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय होता है। अतः पैर सम्बन्धी रोगों में प्राय: पृथ्वी तत्त्व के असन्तुलन की संभावनाएँ अधिक रहती है। साथ पृथ्वी तत्त्व की कमी से शरीर में दुर्बलता, कमजोरी, झुंरियाँ पड़ना आदि हो जाते हैं, परन्तु इसके बढ़ने से मोटापा हो जाता है । पृथ्वी तत्त्व के असंतुलन से शरीर में जड़ता बढ़ती है। किसी कार्य में एकाग्रता नहीं रहती तथा निर्णय लेने की क्षमता कम विकसित होती है। पृथ्वी तत्त्व घ्राणेन्द्रिय के प्रति अधिक संवेदनशील होता है। जिनकी घ्राणेन्द्रिय सक्रिय होती है, उनमें पृथ्वी तत्त्व का अनुपात अपेक्षाकृत अधिक होता है। मन में दया, कोमलता का भाव, जोखिम उठाने की क्षमता, मस्तिष्क में भारीपन आदि का पृथ्वी तत्त्व से संबंध होता है । प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा आहार में सुधार और मिट्टी के उपचार द्वारा तत्त्व के असंतुलन को दूर किया जाता है । जल तत्त्व जलं तत्त्व पृथ्वी से हल्का और तरल होता है। अतः धरती पर जल रहता है। पृथ्वी ही उसका आधार होती है। उसका बहाव सदैव नीचे की तरफ होता है। शरीर में गुदा से नाभि तक के भाग में जल तत्त्व की अधिकता होती है। शरीर में जितने तरल पदार्थ होते हैं, जैसे-रक्त, वीर्य, लासिका, मल, मूत्र, कफ, थूक पसीना, मज्जा आदि का संबन्ध जल तत्त्व से अधिक होता है। जल तत्त्व की कमी से शरीर में शुष्कता, त्वचा सम्बन्धी रोग, बालों का समय से पूर्व सफेद होना, प्यास अधिक लगना जैसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं। जबकि जल तत्त्व की अधिकता से कफ का बढ़ना, पसीना ज्यादा आना, पेशाब अधि क लगना आदि स्थितियाँ बनती हैं। शरीर में जल तत्त्व की अधिकता वाले अधिक भावुक और आसक्ति रखने वाले होते हैं। आलस्य और निद्रा की अधिकता रहती है एवं कठिन कार्य करने में अपनी मानसिकता देरी से बना पाते हैं। जल तत्त्व के असंतुलन से व्यक्ति में आलस्य बढ़ने लगता है। कठोर, परिश्रम वाले कार्यों के करने में कठिनाई अनुभव होती है। स्वभाव में रूखापन होने लगता है। गहरी निद्रा नहीं आती। बात-बात में आवेग आने लगते हैं। जल तत्त्व की अधिकता वाले रसनेन्द्रिय के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। खाने पीने की चीजों के बारे में जल्दी प्रतिक्रिया करते हैं। शुद्ध जल के सेवन, सब्जियों, फलों के रस और अन्य तरल पदार्थों के सेवन से शरीर में जल तत्त्व की पूर्ति होती है । प्राकृतिक चिकित्सक पानी का अलग-अलग प्रकार से शरीर में उपयोग करवा कर, उषापन, वाष्प स्नान, टब बाथ, एनिमा नेति एवं अन्य जल सम्बन्धी क्रियाओं द्वारा जल तत्त्व को संतुलित करते हैं । 51

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