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बनती है। इस मुद्रा से शरीर में मणिपुर. चक्र से विशुद्ध चक्र तक के सभी चक्र प्रभावित होते हैं। बहरापन, कान के रोग, हिचकी, गंगापन. सिर दर्द, विचार शून्यता दूर होती है। काम वासना नियन्त्रित होती है। मूत्रावरोध दूर होता है।
अंगुष्ठ को अनामिका के ऊपरी पौर से स्पर्श से यह मुद्रा बनती है। पृथ्वी तत्त्व सन्तुलित होने से शरीर की ताकत और पैरों की शक्ति बढ़ती है। . .
अनामिका के ऊपरी पौर को अंगूठे के मूल पर रख कर अंगूठे से दवाने पर यह मुद्रा बनती है। इस मुद्रा से मोटापा व भारीपन घटता है। मानसिक तनाव में कमी आती है।
अंगुष्ठ का कनिष्ठिका के.ऊपरी पौर पर स्पर्श करने से यह मुद्रा बनती । है। कनिष्ठिका जो शरीर में जल तत्त्व का सन्तुलन करती है। जल तत्त्व की कमी से होने वाले रोगों में जैसे मांसपेशियों में खिंचाव, चर्म रोग, शरीर में रूक्षता आदि . ठीक होते हैं। रक्त शुद्धि और त्वचा में स्निग्धता लाने के लिये वरूण मुद्रा लाभदायक होती है।
प्राण मुद्रा - कानिष्ठिका और अनामिका के ऊपरी पौर को अंगुठे से पौर से स्पर्श करने से यह मुद्रा बनती है, जो जल औ' पृथ्वी तत्त्व को शरीर में सन्तुलन करने में सहयोग क्त्ती है।
इस मुद्रा से चेतना शक्ति जागृत होती है। शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। हस्त रेखा विज्ञान के अनुसार सूर्य की अंगुलि अनामिका समस्त प्राणशक्ति का केन्द्र मानी जाती है। बुद्ध की अंगुलि कनिष्ठिका युवा शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। अतः इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर में प्राण शक्ति का संचार तेज होता
है। रक्त संचार ठीक होने से रक्त नलिकाओं का अवरोध दूर होता है। साधक को __ भूख प्यास की तीव्रता नहीं सताती। -
अपान मुद्रा ' मध्यमा और अनामिका अंगुली के सिरे को अंगूठे के सिरे से स्पर्श करने से बनती है। इस मुद्रा से शरीर से विभिन्न प्रकार के विजातीय तत्त्वों की विसर्जन क्रिया नियमित होती है. ताकि अनावश्यक अनुपयोगी पदार्थ सरलता पूर्वक शरीर से बाहर निकल जाते हैं।
इससे पेट में वायु का नियन्त्रण होने से पेट संबंधी वात रोगों में विशेष लाभ होता है। इस मुद्रा से मूत्राशय की कार्य प्रणाली सुधरती है। कब्ज और बवासीर में यह मुद्रा विशेष लाभ दायक होती है। यह मुद्रा दांतों को भी स्वस्थ रखती है। इस मुद्रा से पसीना नियमित ढंग से आने लगता है। शरीर में प्राण और अपान वायु संतुलित होती है।