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है। किसी कारण नाभि यदि अपने स्थान से ऊपर की तरफ चढ़ जाती है तो खट्टी डकारें, अपच आदि की शिकायतें रहने लगती हैं। कब्जियत हो सकती है। परन्तु यदि नाभि अपने स्थान से नीचे की तरफ चली जाती है तो दास्तों की शिकायत. ' हो जाती है। इसी प्रकार नाभि कभी दांयें, बांयें अथवा तिरछी दिशाओं में भी हट जाती है, जिससे शरीर में अनेक प्रकार के रोग होने लगते हैं। सारे परीक्षण एवं पेथोलोजिक टेस्ट करने के पश्चात् भी रोग पकड़ में नहीं आता। ऐसे में नाभि केन्द्र को अपने केन्द्र में लाने से तुरन्त राहत मिलने लग जाती है ।
नाभि असंतुलन के
कारण
गलत ढंग से श्वसन क्रिया करने, योगासन न करने अथवा गलत ढंग से करने अथवा शरीर का संतुलन बिगाड़ने वाली अन्य प्रवृत्तियों के कारण भी नाभि अपने केन्द्र से हट जाती है। स्कूटर में कीक मारने अथवा गलत तरीके से वजन उठाने पर नाभि प्रायः ऊपर की तरफ झुककर अधिक देर बैठने से अन्दर की तरफ जा सकती है।
तनाव का नाभि पर प्रभाव
गलत खान-पान एवं जीवनचर्या के साथ प्रतिदिन की चिन्तायें, दुःख, तनाव, आवेग, क्रोध, द्वेष, घृणा आदि प्रवृत्तियां विभिन्न मानसिक जहरों के माध्यम से शरीर पर अपना प्रभाव निरन्तर छोड़ती रहती हैं। इससे नाभि क्षेत्र में विजातीय तत्त्वों का जमाव होने लगता है। यदि इन दुष्प्रवृत्तियों के दुष्प्रभाव का चिन्तन किया जावे तथा समभाव पूर्ण जीवन जीया जावे तो भविष्य में इन दोषों के दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। इसी कारण जैन साधुओं के लिए प्रतिदिन प्रातः एवं सांयकाल अपने दोषों का परिमार्जन करने के लिए प्रतिक्रमण को आवश्यक बतलाया गया हैं । परन्तु कभी-कभी महीनों अथवा सालों के बीत जाने के बाद भी यदि हम घृणा, द्वेष, क्रोध से उत्पन्न उन विजातीय तत्त्वों को प्रायश्चिंत एवं सकारात्मक सोच द्वारा दूर करने का प्रयत्न नहीं करते, जिससे विजातीय तत्वों का जमाव नाभि क्षेत्र में बढ़ने लगता है। नाभि के आसपास जो नाड़ियां (रक्त की सिराये) एक-दूसरे से अलग-अलग फैली हुई हैं, आपस में चिपक जाती हैं। उलझ जाती हैं अथवा गुच्छों का रूप ले लेती हैं। फलतः नाभि क्षेत्र से पूरे शरीर को प्रवाहित होने वाली प्राण ऊर्जा के मार्ग में अवरोध उत्पन्न होने लगता है। शरीर के संतुलन का मुख्य आधार नाभि केन्द्र होता है। नाभि केन्द्र में स्थित मणिपुर चक्र सर्वाधिक ब्रह्माण्ड से ऊर्जा ग्रहण करता है और बाकी भी शरीर जो प्राण ऊर्जा ग्रहण करता है वह सर्व प्रथम मणिपुर चक्र (नाभि केन्द्र) में होकर अन्य ऊर्जा चक्रों में प्रवाहित होती है। गर्भकाल में सारा पोषण नाभि के माध्यम से ही मिलता है। अतः यदि नाभि की ध
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