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को अपने शरीर, मन, भाव व विचारों में होने वाले सूक्ष्मतम परिवर्तनों का चिंतन करना चाहिये और जहाँ कहीं असहयोग अथवा असन्तुलन की स्थिति ध्यान में आती : है,उसे सम्यक पुरुषार्थ द्वारा दूर करने का तुरन्त प्रयास करना चाहिये।
असंतुलनों की बाह्य अभिव्यक्तियाँ
शरीर में जब कोई रोग उत्पन्न होता है, तो उसके संकेत बाह्य रूप से अभिव्यक्त होने लगते हैं। जैसे :- भूख न लगना अथवा बहुत अधिक लगना, अनिद्रा अथवा अति निद्रा आना, शरीर से खांसी, हिचकियां, डकारें, गैस बनना, हांफने की आवाज, निद्रा में खर्राटे भरने जैसी ध्वनियाँ निकलना, जल्दी बोलना अथवा हकलाना, हाथ पैर अथवा शरीर के किसी भाग में कम्पन्न होना, शरीर का ठण्डा अथवा गरम हो जाना: बहुत अधिक पसीना आना, चेहरे पर तनाव, भय अथवा दुःख की अभिव्यक्ति होना, मोटापा, गंजापन, समय से पूर्व बालों का सफेद हो जाना आंख, कान, नाक आदि इन्द्रियों की क्षमता कम हो जाना, मल-मूत्र का विसर्जन नियमित न होना इत्यादि, तो असंतुलन की ऐसी अभिव्यक्तियां हैं, जिन्हें हम रोग समझ उपचार द्वारा स्वस्थ करते हैं। परन्तु कुछ ऐसे असंतुलन होते हैं, जिनकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं होती, अतः हम शरीर में उनकी उपस्थिति को प्रायः रोग का कारण नहीं मानते। इसी कारण प्रायः अधिकांश चिकित्सा पद्धतियों में उनका संतुलन करना पूर्णतया उपेक्षित होता हैं, परन्तु जिनको बहुत ही सरल ढंग से संतुलित किया जा सकता है। जैसे: पगथली का.ठण्डा रहना। उठते-बैठते, चलते-फिरते पीड़ा की अनुभूति होना एक पैर का बड़ा अथवा दूसरे पैर का छोटा हो जाना। गर्दन और नाभि केन्द्रों का अपने स्थान से हट जाना। रीढ़ के मणको के आसपास अवरोध आ जाने से नाड़ी संस्थान संबन्धी रोगों का प्रकट होना। मानसिक तनाव, अपाचन अनिद्रा, थकान, कमजोरी अथवा अन्य किसी भी रोग का हो जाना आदि। जब तक इन अंसन्तुलनों को पुनः संतुलित नहीं किया जाता तब तक कोई भी चिकित्सा पद्धति पूर्ण प्रभावशाली ढंग से कार्य नहीं कर सकती। जिस प्रकार फूटे हुए घड़े को भरने से पूर्व उसका छिद्र बन्द करना आवश्यक होता हैं। बिना छिद्र बंद किये, कितना ही पानी क्यों न डालें, घड़ा स्थायी रूप से भरा हुआ नहीं रह सकता। ..
तापक्रम का असंतुलन शरीर सबसे बड़ा प्राकृतिक वातानुकुलित संयंत्र है। बाहर चाहे जितनी गर्मी एवम् सर्दी क्यों न हो वह अपने को निश्चित ताप पर नियन्त्रित रखता है। यदि वह ताप अनियन्त्रित हो जावे तो हम रोग ग्रस्त हो जाते हैं। शरीर पर आन्तरिक ताप के असंतुलन की अभिव्यक्ति बुखार अथवा कमजोरी के रूप में होती है। बाह्य ताप के प्रभाव से भी हमारा संतुलन बिगड़ जाता है। गर्मी एवम् सर्दी सम्बन्धी रोगों की उत्पत्ति इन्हीं का परिणाम है। अतः गर्मी के प्रकोप से होने वाले रोगों को चन्द्र
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