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वर
दीपिका
॥ ५ ॥
रोगी थाय छे, एकाळनी बलिहारी छे. एम विचारतो तेतलिपुत्र प्रधान मानभ्र थयोयको आर्त रौद्र ध्यानमां गायो अने तेणे आत्मघात करवानो निश्चय कर्यो. तेणे तालपुट विष खाधुं, पण देवना प्रभावथी शरीरमां संक्रमण थयुं नहि, पछी गामां तलवार मारी छतां ते पण निरर्थक गइ पछी गळामां फांसो नांखी झाडनी डाळीए लटक्यो तो दोरडं तूटी गयुं, त्यार पछी गळे पथ्थरनी शिला बांधी कुत्रामां पड्यो, तो त्यां जल पण रेतीनुं थल थइ गयुं. सूकां लाकडी लावी अभिनी चिता खडकी अभि सळगावी तेमां पड्यो तो अग्नि पण बुझी गइ, ए प्रमाणे मरवाना अनेक उपाय कर्या ते बधा निष्फळ गया. त्यारे तेणे विचार कर्यो के, “घरना बळ्या रणमां गया तो रणमां लागी लाह्य” ए प्रमाणे यतो ततो भ्रष्ट थयो. एम अनेक संकल्प विकल्प करसो, आर्त रौद्रध्यान ध्यावतो रणमां उभो रह्यो तो तेनी आगळ एक मोटी खाइ थइ गइ छे, पाछळ एक विक्राळ हाथी उभो छे अने बीजी बने बाजुए एक महा अंधकार व्यापी रह्यो छे अने माथा उपर बाणनी दृष्टी थइ रही छे; एवा समयमा अति दूर नहीं तेमज अति नजीक नहीं ए प्रमाणे पोटीलदेव पोताना मूळरूपथी ( पोटीलाना रूपथी ) आवीने उभी छे. ते तेने घणोज मधुर ध्वनिथी प्रतिबोधे छे.
आ वेळा प्रधाननुं शांत चित्त दुःखगर्भित वैराग्यमय थयुं. तेणे विचार कर्यो के अहो हुं एक समये मोटा राज्येनो प्रधान हतो, में मरवाना घणा प्रयोगो कर्या ते निष्फळ गया, ए मारी वात कोण मानशे. एकवार ते पण समय हतो के मने सौ खमाखमा करतुं ते पण हुं हतो, अने एक आ पण समय छे अने हाल पण हुंज लुं. तेथी हुं जे विचार करुछु ते आत्मा छे, अने आत्मा छे तो पुण्य पण छे अने पाप पण छे अने छेवटे स्वर्ग अपवर्ग पण छे. अहा हुं भुल्यो, आथडयो, एम
सू० दी०