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ब्रह्मवा बनी
॥ ७३ ॥
गौन स्नान करते रहैं, बटशीश धारै जटा नेमहु लुंचावे लटा पशु अनपटा खर जसम सदा वहै ॥ व्याल पौनाहारी कष्ट जुरुइ सहत जारी पिजरे मैं परयो शुक राम रामदी है, किए कर्म
न सिद्ध न नइ निदान बिना ब्रह्मग्यान निरवान कोउ नां लहे ॥ ४२ ॥ जरममै नूले मूढ फिरत हैं फूले फूले वाय के बघूले जैसे उबटन वाटके, आपकों न बोध परवोधकरै लोगनिक जोगनिके लिए गर्ने जगल कुवाटके ॥ कोउ तो महंत को आपकों कहावें संत मायामें लिपटी रहें की मा जैसें पाटके, उत घर तज्यौं इत ब्रह्महुकौं नांहि जज्यो धोबी केसे कूकरा घरके न घाटके ॥ ४३ ॥ मानसे महीधर उतंग अति उंचे जहां मायासी सरित जामें पापजल है अथगा, क्रोधसे दावानल जल रहे या जाम कालसे मृगाधिके मरसौं मरात जगा ॥ कामसे कुचील जील बीन लेत सत्य शीघ्र रागद्वेष चोर जहां मोहसे रहत वगा, सो जववन महा दुखको निवास घन तहां द जनकौं तो गुरुदी बतावै मगा ॥ ४४ ॥ योगकी युगति कर साधत मुगति मुनि मन पवनकी निरूंधि गति गहरी, जेदि खट चक्रकौं अवत्र गति अनिलकी त्रिकुटी प्रवाटके कपाट खुलें
ब्र०बा०
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