Book Title: Surdipikadi Prakaran Sangraha
Author(s): Purvacharyadi, Mangaldas Lalubhai
Publisher: Mangaldas Lalubhai

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Page 409
________________ धर्मैक्यता कायम थार्ज, जूदा जूदा धर्मानुयायि मां रसपरस देखतो धर्मदेव दूर था, प्रातृभाव स्थापित था, सादसंप कायम रहो ने दुर्गुणो दूर थइ सद्गुणोनो संचार यार्ड, दुनियारमां यास्यनो नाश थार्ड, उद्यमनी वृद्धि थार्ज, विद्यानो विकाश था, सत्यनो प्रकाश था, ने ए रीते धर्मनो जय था, विनी प्रजापणा करतां आगळ वधो, आपणा करतां वधु ज्ञान मेळवो, आपणा करतां वधु सत्य शोधन करो, किं बहुना, आपणा करतां बळ -बुद्धि, विद्या-कळा, विज्ञान-वैभव, सुख-संपत्ति, रंग-रूप, होंस - हिम्मत वगेरे तमाम रूमी बावतोमां आगल आगल वधीने आपणा करतां वायु जोवो, ते आपणां मूकेलां अधूरां कामाने परिपूर्ण करो तथा आप स्वते पण नहि जोली अजब शोधो करीने जगद्- विख्यात था, वीर ! वीर ! वीर !

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