Book Title: Surdipikadi Prakaran Sangraha
Author(s): Purvacharyadi, Mangaldas Lalubhai
Publisher: Mangaldas Lalubhai
View full book text
________________
॥१६४।
waar
te
जिह साक्ष दीसे, ते नहु जिनवर वाणी ॥ रेजी० ॥ ३३ ॥जे तप संजम मिलतो थव थुई, मं- उ० र० । गलनो फल जाणो ॥आगम बोल्यो अवर जे सारंन, तेहनो कांश न आणो ॥ रेजी० ॥ ३४ ॥ करे करावे ने अनुमोदे, जिनवरनो उपदेश ॥ तिण विणु जाणे किरिया कीजे, ते सवि कायकिलेश ॥ रेजी० ॥ ३५॥ दूर्ड को किमे दू को किमे, म करिस किही किणवार ॥ आपण थापणी कीधी करणी, उतरवो नवपार ॥रेजी ॥ ३६ ॥ अरिहंत साधु साहम्मी आगम, जिन प्रतीमादिक जाणी॥ तेह तणे जे वंदन पूजन, नगतिति बिह समाणी ॥रेजी ॥ ३७ ।। जिन उपदेशे नगति म जाणीश, निश्चे ने व्यवहार ॥ जिहां सावद्यनो लवलेश लागे, (साधु) श्रावकने अधिकार ॥ रेजी० ॥ ३० ॥ नक्ति नेलो जिह सावध हुए, तिह विधि निषेध म नांखो ॥ गुरु प्रशादिए उल्लह लाधो, रतन जतन करी राखो ॥ रेजी० ॥ ३५ ॥ ए उपदेश रहश्य जे जाणे, है। जिनमतथी नवि मोले ॥ (जिनमति ते नवि मोले,) आपणी आतम शिक्षा कारण, श्री पार्श्वचंद्र || ( सूरि ) श्म बोले ॥ रे जीव० ॥ ४० ॥ इतिश्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागबाधिराजयुग
VasansaAMVAANUAROBaco/I/ABHOJawa/itvane
॥१६४

Page Navigation
1 ... 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412