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सुर
दीपिका
॥ ३३ ॥
धर्म छे, ते मिश्रपक्ष मुनिराजनी अपेक्षाए छे, ते आगारधर्म कही वर्गन कर्यो, तो तेने एकांत धर्मपक्ष श्रावकधर्मनी अपेक्षाये कहेवाय, पण मुनिराजनी अपेक्षाये तो नज कहेवाय. एकांत सम्पकमार्ग कहेवाय, पण जो एकांत धर्मपक्षमांज गणत हो तो साधु अने श्रावकना बच्चे जे अंतर राखवामां आवे छे के मेरु अने सरसव तेनो विचार करवो समीक्षकने सोंपीये छीए.
मात्र जे कोइ मिश्रपक्ष उडावाने माटेज डोल करेतो ते ज्ञानाजीर्ण कहेवाय. अने वळी सूत्र पांचांगमां जे धम्मिया, अमिया, नो मिया, तथा पच्चरुखाणी, अपच्चख्खाणी, पच्चरुखाणापच्चख्खाणी, संजया, असंजया, संजय संजया, बाल, पंडित, बालपंडित, धमेोहिया, अधम्मेड़िया, धम्माधम्मेहिया, विरति, अविरति, विरताविरति, धर्मपक्ष, अधर्मपक्ष, मिश्रपक्ष, विगेरे त्रण त्रण भेद कहे छे ते उत्थापाथ छे. उत्थापाय तो उथपो जेओनुं आ वचन छे ते स्वाधिरूढशाखामोटन न्याय जेवुं छे, कारण के ज्यारे गृहस्थने घेर वेडा मुनिना धर्मपक्षनो लाभ थाय तो तेने सर्वथा चारित्र श्रमणधर्म माटे संसार त्याग करावा उपदेश आपको ते काष्टघंटा विटंबना न्याय सरखोज थाय छे.
देवताओने चारित्र धर्मनी अपेक्षाये अधम्मेडिया कह्या छे, ते पण मात्र व्यवहारनयनी अपेक्षाए जाणवा, अने निश्रेयी वलि विशेष विचार - एटले निश्चय नयनी अपेक्षाये तो विशेष विचार छे तेनी व्याख्या आगेनी गायामां आवर्से, ते व्याख्या गुरु गीतार्थ भवभीरु बहुश्रुत समाधिनिष्ठ एहवा गुणभंडार महाराजनी पासे श्रुत सांभली तथा भणी विशेष
सु० दी०
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