Book Title: Sukta Muktavali
Author(s): Bhupendrasuri, Gulabvijay Upadhyay
Publisher: Bhupendrasuri Jain Sahitya Samiti
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________________ मोक्षवर्गः 1 इह जगति लौकिकं सुखजातं प्रायशः सर्व एव समीहन्ते, कियन्तः सन्तो जीवाः पारमार्थिकस्याऽपि सुखस्य कामयितारः मुक्तावल्यांबा सन्ति, परन्तु ये प्राणिनो लौकिकलौकिकोत्तरं सुखद्वयमपि त्यक्त्वा मोक्षमेव वाञ्छन्ति / तदर्थमेव यतन्ते, त एव धन्यतमाः कथ्यन्ते, जम्बूस्वामिशालिभद्रादिवत् // 2 // तजिय भरत भूमी जेण षट्खण्ड पामी, शिव पथ जिण साध्यो सोलमे शांतिस्वामी / गजमुनि सुप्रसिद्धा जेम प्रत्येक बुद्धा, अवर अरथ छंडी धन्य ते मोक्ष-लुद्धा // 3 // तदेव दृष्टान्तेन द्रढयन्नाह-इहैव भरतक्षेत्रमध्ये पुरा किल षट्खण्डात्मिकामिमां वसुधां विहाय पोडशस्तीर्थङ्करः श्रीशान्तिनाथस्तथाऽन्ये तीर्थकरा भरतादिचक्रवर्तिनो मोक्षमार्गमसाधयन्नेवं गजसुकुमालप्रमुखा जगति सुप्रसिद्धाः करकण्डुनम्यादयः प्रत्येक बुद्धा भव्याः प्राणिनः सर्वमिदं पुत्रमित्रकलनधनादिकं त्यक्त्वा मोक्षायैत्राऽयतन्त // 3 // अथ २-कर्म-विषयेकरम नृपति कोपे दुःख आपे घणेरा, नरय तिरिय केरा जन्म जन्मे अनेरा / शुभ परिणति होवे जीवने कर्म ते वे, सुर नरपति केरी संपदा सोइ देवे // 4 // अस्मिन् लोके यस्मै जीवाय कर्मरूपोऽसौ राजा प्रकृप्यति तस्मै प्राणिने नारकी तिर्यग्योन्युद्धतां यातनां नानाविधां पृथक् पृथगेव प्रयच्छति / यदा पुनः शुभपरिणामिकौदेति तदा तस्मै जीवाय दैवीं मानुषीं चेन्द्रनरेन्द्रश्रियं प्रदत्ते / अतो जीवस्य सुखदुःखादिभोक्तृत्वे कर्मण एव प्राधान्यमस्ति // 4 // In 136 //

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