Book Title: Sukta Muktavali
Author(s): Bhupendrasuri, Gulabvijay Upadhyay
Publisher: Bhupendrasuri Jain Sahitya Samiti

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Page 310
________________ मोक्षवर्गः मुक्तावल्यां // 144 // तावत्तत्र मेघो जगर्ज, तेन तदैव तस्य जागृतिर्जाता, ततः कामपि राज्यसमृद्धिं नाद्राक्षीत केवलं खरं दण्डं जीर्णकन्यां चैतत्त्रयमेव स्वाग्रे व्यलोकत / यथा स भिक्षुर्मुधा स्वमप्राप्तया राज्यसमृद्ध्या मुमुदे / तथैवाजा अपि जीवाः पुत्रकलनधनादौ मुधैव मोदन्ते। धरणि तरु गिरिन्दा देखिए भाव जेई, सुरधनुष परे ते भंगुरा भाव तेई। इम हृदय विमासी कारमी देह माया, तजिय भरतराया चित्त योगे लगाया // 11 // किश्च-संसारेऽत्र ये ये जीवादितरुभूधरप्रमुखचराचरा भावा दृश्यन्ते, ते सर्वे जलबुबुदोपमाः क्षणभंगुरा एव प्रतीयन्ते, इति विचारयता विदुषा जनेन देहमायां विहाय चित्तं समाधौ योज्यम् / यथा भरतचक्रवर्तिना शारीरिकी मोहमायां पट्खण्डभूमि सर्वराज्यसमृद्धिश्च सुवैराग्येण त्यक्त्वा मनो योगे योजितम् // 11 // अथाऽनित्यभावनया त्यक्तदेहाभिमानस्य भरतचक्रवर्तिनः ७-कथायथा राज्यसुखं भुञ्जानस्य भरतचक्रवर्तिनश्चक्ररत्नमुदपद्यत तथाऽऽदीश्वरभगवतः केवलज्ञानमजायत / एकदैव कार्यद्वयस्य वर्धापनं भरताय समागतमिति मुदितो राजा ताभ्यां नराम्यां प्रचुरं दानमददत। ततो मनसि दध्यौ यदिदं चक्ररत्नमुत्पेदे तदत्रैव फलदम् / तात ऋषभदेवस्वामी तु लोकद्वयेऽपि निःसीमफलदायी ततो मया प्रथम तद्भक्तिरेव विधातव्येति विचार्य मरुदेवीमातरं गजोपर्युपावेश्य भरतचक्रवर्ती प्रभोर्वन्दनायै चचाल / या मरुदेवी माता पुरा पुत्रस्य ऋषभदेवस्य विरहादनिशं रुदती वर्षमेकं व्यतीयाय / सैव तस्य वन्दनायै यान्ती देवदुन्दुभिस्वनमाकर्ण्य भरतमपृच्छत-हे भरत ! वाद्यानामीहग्मधुरध्वनिः कुत्र जायते // 144 //

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