Book Title: Sukta Muktavali
Author(s): Bhupendrasuri, Gulabvijay Upadhyay
Publisher: Bhupendrasuri Jain Sahitya Samiti
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________________ SKARSANEC+ ५-अथ ९-निर्जराभावनामाहदुअदश तप भेदे कर्म ए मिर्जराए, उतपति थिति नाशे लोक भावा भराए / दुरलभ जग बोधी दुर्लभा धर्म बुद्धि, भव हरणि विभावो भावना एह शुद्धि // 25 // कस्य निर्जरा समुदेति यो हि षड्धा बाह्य, तावदेवाऽऽभ्यन्तरश्च तपः करोति, इत्थं द्वादशविधतपः करणेन यः सञ्चि-2 तानि कर्माणि क्षपयति यस्याग्रे च कर्माणि नोत्पद्यन्ते तस्य सो निर्जरा जायते। अनयैव भव्याः सद्बोधिबीजं लभन्ते, भवश्च निस्तरन्ति // 25 // उपजाति-वृत्तम्-ये निर्जराऽकाम सकाम तेही, अकाम जे ते मरुदेवि जेही। जे ज्ञान थी कर्म ज निर्जरीजे, दृढप्रहारी परि ते तराजे // 26 // सेयं निर्जरा सकामाऽकामाम्यां द्विविधा वर्तते / मरदेवी माता यदज्ञानेन परवशत्वेन च कर्माणि थायितवती, साकामा निर्जरा कीर्त्यते / यथा दृढप्रहारी ज्ञानेन स्वाधीनत्वेन च कर्माणि क्षपयामास, सा सकामनिर्जरा भावना विज्ञेया // 26 // ५-अय १०-लोकस्वरूपभावनामाहजिम पुरुष विलोये ए अधोलोक तेवो, तिरिय पण विराजे थाल स्यो वृत्त जेवो। उरधमुरज जेवो लोकनालि प्रकास्यो, तिम त्रिभुवन भानू केवली ज्ञान भास्यो॥ 27 // CEROSAROTECAR-U +WARA

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