Book Title: Sramana 2010 07
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 8
________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१० प्रायश्चित्त तप क्यों डॉ. सुदर्शनलाल जैन ['प्रायश्चित्त तप' अपराध-सुधार हेतु एक प्रकार का दण्ड-विधान तथा कर्म-निर्जरा का माध्यम है। यह सभी द्वारा आचरणीय है। यह हमारी आभ्यन्तर शुद्धि का सशक्त माध्यम है। ] जैन दर्शन में आभ्यन्तर तपों की गणना करते समय सर्वप्रथम 'प्रायश्चित्त' तप को गिनाया गया है। प्रमादवश या अज्ञानवश हमारे द्वारा बहुत से अपराध हो जाते हैं जिन्हें हम 'प्रायश्चित्त' के द्वारा दूर कर सकते हैं अर्थात् भूलवश या असावधानी से हुए दोषों का शोधन करना प्रायश्चित्त है। यह सर्व विदित है कि जैन दर्शन में आचारशुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। अतः जैसे फिल्टर से पानी को शुद्ध किया जाता है वैसे ही ग्रहण किए गए व्रतों में दूषण लगने पर प्रायश्चित्त द्वारा उनका शोधन किया जाता है। अत: अपराध की शुद्धि हेतु दण्ड स्वीकार करना प्रायश्चित्त है। इसके प्रभाव से पूर्वकाल में संचित पापकर्म नष्ट होते हैं तथा आत्मा निर्मल होती है। तीव्र ज्वर में बिना विचारे ग्रहण की गई दोषयुक्त महान् औषधि भी आरोग्यवर्धक नहीं होती उसी प्रकार प्रायश्चित्त के बिना एक पक्ष या मास आदि का उपवास तप भी उपकारक नहीं होता। जैसे स्वच्छ दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब चमकता है वैसे ही सद्गुरु से दोष के अनुरूप प्रायश्चित्त करने पर तपस्वी चमकता है। __ मूलाचार में प्रायश्चित्त के आठ नाम गिनाए हैं जो प्रायश्चित्त के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं पोराणकम्मखवणं खिवणं णिज्जरणं सोधणं धुवणं । पुंच्छणमुच्छिवणं छिंदणं त्ति पायच्छित्तस्स णामाई ।। ३६३।। अर्थ- पूर्वोपार्जित कर्मों का १. क्षपण (नष्ट करना), २. क्षेपण (दूर हटाना), ३. निर्जरण (निर्जरा करना), ४. शोधन, ५. धावन (धोना), ६. पुंछन (पोंछना), ७. उत्क्षेपण (ऊपर फेंकना), ८. छेदन (टुकड़े करना) *. प्रो. (डॉ.) सुदर्शनलाल जैन, निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी।

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