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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा
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तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक किया हुआ यज्ञ । ' इस प्रकार जैनधर्म ने तत्कालीन कर्मकाण्डात्मक मान्यताओं को एक नई दृष्टि प्रदान की और उन्हें आध्यात्मिक स्वरूप दिया, साथ ही धर्म - साधना का जो बहिर्मुखी दृष्टिकोण था, उसे आध्यात्मिक संस्पर्श द्वारा अन्तर्मुखी बनाया। इससे उस युग के वैदिक चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित हुआ। इस प्रकार वैदिक संस्कृति को रूपान्तरित करने का श्रेय सामान्य रूप से श्रमण परम्परा को और विशेष रूप से जैन - परम्परा को है ।
अर्हत् ऋषि परम्परा का सौहार्दपूर्ण इतिहास
प्राकृत साहित्य में 'ऋषिभाषित' (इसिभासियाई) और पालि साहित्य में 'थेरगाथा' ऐसे ग्रन्थ हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अति प्राचीनकाल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं के होते हुए भी अर्हत् ऋषियों की समृद्ध परम्परा थी, जिनमें पारस्परिक सौहार्द था।
'ऋषिभाषित' जो कि प्राकृत जैन आगमों और बौद्ध पालिपिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, यह अध्यात्मप्रधान श्रमणधारा के पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित करता है। यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् तथा शेष सभी प्राकृत और पालि साहित्य के पूर्व ई० पू० लगभग चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ, बौद्ध, औपनिषदिक एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के ४५ अर्हत् ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ थेरगाथा में भी श्रमणधारा के विभिन्न ऋषियों के उपदेश एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं। ऐतिहासिक एवं अनाग्रही दृष्टि से अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो 'ऋषिभासित' (इसिभासियाइं) के सभी ऋषि जैन परम्परा के हैं और न थेरगाथा के सभी थेर (स्थविर) बौद्ध परम्परा के हैं। जहाँ 'ऋषिभाषित' में सारिपुत्र, वात्सीपुत्र ( वज्जीपुत्त) और महाकाश्यप बौद्ध परम्परा के हैं, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य, अरुण, असितदेवल, नारद, द्वैपायन, अंगिरस, भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से सम्बन्धित हैं, तो संजय (संजय वेलट्ठिपुत्त), मंखली गोशालक, रामपुत्त आदि अन्य स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं । इसी प्रकार 'थेरगाथा' में वर्द्धमान आदि जैनधारा के, तो नारद आदि औपनिषदिक धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है। सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिकधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ, किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है। यह सही है कि वैदिकधारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमणधारा निवृत्तिमार्गी । इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवन मूल्यों का संघर्ष था । किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो श्रमण-धारा का उद्भव, मानव व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न था, जिसमें श्रमण-ब्राह्मण सभी सहभागी बने थे। 'ऋषिभाषित' में इन ऋषियों को अर्हत् कहना और 'सूत्रकृतांग' में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना,