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वज्जालग्गं का काव्यात्मक मूल्य
रजनीश शुक्ल*
भारतीय साहित्य मानव जीवन के किसी न किसी मूल्य से हमेशा जुड़ा रहा है। शायद इसीलिए, हजारों वर्ष पूर्व का साहित्य आज भी जीवन को आलोकित करने की क्षमता रखता है। संस्कृत साहित्य की क्षमता इस क्षेत्र में जितनी समर्थ है उतनी ही व्यापक उपयोगिता प्राकृत साहित्य की भी है। इस साहित्य के माध्यम से वह जनमानस उभरकर सामने आया है, जिसमें लोक की सहज अनुभूतियां हैं तथा अध्यात्म के अभिनव प्रयोग। प्राकृत भाषा अपनी विविधता व अनेकरूपता के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है, अपितु उनका साहित्य भी नित नया रूप धारण करता रहा है। अत: इस साहित्य में जीवन मूल्य की खोज का अध्यात्म के बदलते स्वरूप की पकड़ है, क्योंकि जितने परिवर्तन आठवीं सदी की विचारधारा में मिलते हैं उतने सम्भवतः अन्य सदी में कम मिलते हैं।
इस युग के साहित्यकारों ने विषय शिल्प और भाषा समन्वयबोध को अधिक जाग्रत किया है। जो बात वे कहना चाहते थे उसी के अनुसार शब्द संरचना, रस, अलंकार, छन्द और अपने काव्य सौन्दर्य के माध्यम से ही उसका उपयोग अपने साहित्य में करते थे। इस युग के साहित्यकारों तथा कवियों ने मानव जीवन के विविध पहलुओं को गहराई से देखने-परखने की चेष्टा की है। अत: वे साहित्य को मात्र मनोरंजन का साधन न मानकर जीवन की सूक्ष्म संवेदनाओं, मनोविकारों और भावनाओं का विश्लेषण करने वाला माध्यम मानते हैं। इसी दृष्टिकोण के कारण प्राकृत काव्य साहित्य उद्देश्य परक साहित्य कहा जा सकता है। यह साहित्य इस बात का प्रतिफल है कि जिसके सर्जक सार्थकता के अन्वेषी थे अत: उनके द्वारा लिखा गया साहित्य निर्रथक एवं उद्देश्यहीनता जैसे दोषों से मुक्त रहा।
साहित्य एवं समाज का अविनाभाव सम्बन्ध होता है। साहित्य में समाज का प्रतिबिम्ब अवश्य पड़ता है। सर्जक सामाजिक प्राणी है, अत: उनकी कृति साहित्यिक सन्दर्भो से सर्वथा मुक्त नहीं रह सकती किन्तु उसका मूल्य जैसा है वैसे ही उसका वर्णन करता है। साहित्य सर्जक का सर्जन सृष्टि के सर्जनहार की दृष्टि से विलक्षण * जे० आर०एफ०, जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर