Book Title: Sramana 2003 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 168
________________ १६२ पावन सान्निध्य में श्री जम्बूस्वामी दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र, मथुरा में यह संगोष्ठी १९१०-९७ से २१-१०-९७ तक आयोजित की गयी थी। इसका आयोजन श्री गणेशवर्णी शोध संस्थान, वाराणसी द्वारा किया गया था। इस संगोष्ठी के ७ सत्रों में कुल ३७ निबन्धों का वाचन हुआ। संगोष्ठी में पठित प्राय: सभी आलेख अपनेअपने विषय/क्षेत्र में लम्बे समय से कार्य कर रहे वरिष्ठ विद्वानों के हैं। अपने लेखों में उन्होंने अनेक नई बातों का उल्लेख किया है। ये निबन्ध भगवान् पार्श्वनाथ से सम्बद्ध इतिहास, साहित्य, स्थापत्य-शिल्प एवं कथानकों पर आधारित हैं और इन क्षेत्रों में कार्य करने वाले अन्वेषकों के लिये निश्चित् ही एक सफल मार्गदर्शक की भूमिका निभाने में समर्थ हैं। आशा है इस महत्त्वपूर्ण संगोष्ठी में पढ़े गये निबन्धों से प्रेरणा लेकर नये शोधार्थी इस कार्य को आगे बढ़ायेंगे। __ संगोष्ठी में पढ़े गये शोध आलेखों को शुद्धरूप में सुन्दर ढंग से प्रकाशित कर प्राच्य श्रमण भारती ने अत्यन्त सराहनीय कार्य किया है। इसका मूल्य १२५/- रुपये रखना प्रकाशक की उदारता का परिचायक है। यह पुस्तक प्रत्येक पुस्तकालयों के लिये संग्रहणीय और जैन धर्म-दर्शन - साहित्य-कला-इतिहास - किसी भी क्षेत्र में कार्य करने वाले शोधार्थियों के लिये अनिवार्य रूप से पठनीय और मननीय है। दशवकालिक सूत्र - तिलकाचार्य द्वारा रचित वृत्ति सहितः संशोधक - आचार्य विजय सोमचन्द्रसूरि : प्रकाशक - श्री रांदेर रोड जैन संघ, श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ जैन देरासर पेढ़ी, अडाजणा पाटीया, रांदेर रोड, सुरत ३९५००९; प्रथम संस्करण वि०सं० २०५८; आकार - डिमाई, पृष्ठ ४८+५०२; पक्की जिल्द; मूल्य १५०/- रुपये मात्र। जैन आगमों में तीसरा मूलसूत्र है दशवैकालिक, जिसकी रचना आचार्य शय्यंभवसूरि द्वारा की गयी है। आगमों पर प्रारम्भ में प्राकृत भाषा में टीकायें रची गयीं जो नियुक्ति, भाष्य एवं चूर्णियों के नाम से प्रसिद्ध हुईं। बाद के काल में संस्कृत भाषा के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण संस्कृत भाषाओं में भी विभिन्न जैन मुनिजनों ने टीकाओं की रचना की। इनमें प्राचीन निर्यक्तियों, भाष्यों एवं चूर्णियों की सामग्री का उपयोग करने के साथ-साथ टीकाकारों ने विभिन्न हेतुओं एवं तर्कों द्वारा भी इस सामग्री को परिपुष्ट किया। दशवकालिक सूत्र पर भी प्राकृत भाषा में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं संस्कृत भाषा में टीकाओं की रचना की गयी। प्रस्तुत पुस्तक दशवैकालिक सूत्र मूल और उस पर तिलकाचार्य द्वारा संस्कृत भाषा में रची गयी वृत्ति का मुद्रित रूप है। तिलकाचार्य जैन धर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अन्तर्गत पूर्णिमागच्छ से सम्बद्ध थे। इनके गुरु का नाम शिवप्रभसूरि था जो पूर्णिमागच्छ के प्रवर्तक आचार्य चन्द्रप्रभसूरि के प्रपौत्र शिष्य थे। कृति की प्रशस्ति में रचनाकार ने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है -

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