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जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान् लेखक ने जालोर एवं स्वर्णगिरि दुर्ग के सांस्कृतिक इतिहास को सारगर्भित रूप में प्रस्तुत किया है। इसमें कुल १६ अध्याय हैं । प्रथम अध्याय के ११ पृष्ठों में जालौर के राजनैतिक इतिहास का संक्षिप्त परिचय है। द्वितीय अध्याय में इस क्षेत्र की भौगोलिक संरचना और तृतीय अध्याय में स्वर्णगिरि दुर्ग एवं वहां के जिनालयों का विवरण है। चौथे और पांचवें अध्याय में इस क्षेत्र में जैन धर्म के प्रसार तथा यहां से सम्बद्ध विभिन्न जैन मुनिजनों एवं उनके द्वारा रचित साहित्य का विवेचन है। छठे अध्याय के अन्तर्गत कान्हणदेप्रबन्ध में वर्णित जालौर नगर की चर्चा है। सातवें अध्याय में तपागच्छीय आचार्य विजयदेवसूरि द्वारा यहां प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं का विवरण है। आठवें एवं नवें अध्यायों में भगवान् महावीर से लेकर बृहद्सौधर्म तपागच्छ के वर्तमान गच्छनायक तक का संक्षिप्त परिचय है। दसवें अध्याय में मुगलकाल में हुए जयमल जी मुणोत द्वारा स्वर्णगिरि स्थित जिनालयों पर कराये गये जीर्णोद्धार कार्य की चर्चा है। ग्यारहवें एवं बारहवें अध्याय में जालौर स्थित जिनालयों एवं मध्यकाल में रचित विभिन्न तीर्थमालाओं एवं प्रशस्तियों में वर्णित इस नगरी के विवरणों की चर्चा है। तेरहवें अध्याय में यहां के जिनालयों में संरक्षित विभिन्न जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण है। चौदहवें अध्याय में यहां स्थित शैव एवं शाक्त पीठों एवं पन्द्रहवें अध्याय में इस क्षेत्र में समय-समय पर प्रचलित विभिन्न मुद्राओं का परिचय है। अंतिम अध्याय में मार्च २००२ में इस दुर्ग पर नव निर्मित जिनालयों के प्रतिष्ठा महोत्सव की चर्चा है। ग्रन्थ के अन्त में महत्त्वपूर्ण संदर्भ सूची भी दी गयी है। सम्पूर्ण ग्रन्थ में चित्ताकर्षक विभिन्न रंगीन चित्र भी दिये गये हैं, जो पाठकों का मन मोह लेते हैं। इसकी साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक और मुद्रण सुस्पष्ट है। ग्रन्थ शोधार्थियों के साथ-साथ पर्यटन में रुचि रखने वाले जिज्ञासुओं के लिये भी उपयोगी है। इस बहुउद्देशीय ग्रन्थ के प्रणयन और सुन्दर ढंग से इसे प्रकाशित करने हेतु लेखक और प्रकाशक दोनों ही अभिनन्दनीय हैं।
अर्बद परिमण्डल की जैन धातु प्रतिमायें एवं मन्दिरावलि (प्रतिमा शिल्प, प्रतिमालेखीय एवं ऐतिहासिक अध्ययन) : लेखक - डॉ० सोहनलाल पटनी; प्रकाशक- सेठ कल्याण जी परमानन्द जी पेढ़ी, सुनारवाड़ा, सिरोही (राज.); प्रथम संस्करण- २००२ ई०; आकार - डिमाई; पृष्ठ १४+१६६; हार्ड बाइंडिंग; मूल्य१००/- रुपये मात्र।
अभिलेखीय साक्ष्यों की प्रामाणिकता के कारण इतिहास लेखन में उनका महत्त्व निर्विवाद है। जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों - उपसम्प्रदायों, तत्कालीन सांस्कृतिक इतिहास आदि के क्रमबद्ध अध्ययन में भी ठीक यही बात लागू होती है। उक्त क्षेत्रों में शोधकार्य करने वालों का सौभाग्य है कि उन्हें जैन शिलालेखों - प्रतिमालेखों - चरणपादुकाओं आदि के एक दर्जन से अधिक संग्रह ग्रन्थ सुसम्पादित और प्रकाशित