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चन्द्रप्रभसूरि (पूर्णिमागच्छ के प्रवर्तक) धर्मघोषसूरि चक्रेश्वरसूरि शिवप्रभसूरि तिलकाचार्य (वि०सं० १२६१/ई० सन् १२०५ में दशवैकालिकसूत्रवृत्ति
के रचनाकार) यह वृत्ति अभी तक अप्रकाशित थी। तपागच्छीय विजयसंविग्न परम्परा के विद्वान् मुनि आचार्य विजयसोमचन्द्रसूरि ने मुनि निर्मलचन्द्रगणि एवं मुनि जिनेशविजयजी के सहयोग से जैसलमेर, पाटण, खंभात, अहमदाबाद, सुरत आदि नगरों के ग्रन्थ भंडारों से प्राप्त १२ हस्तप्रतियों के आधार पर प्रामाणिक रूप से इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का संशोधन एवं संपादन तथा श्री रांदेर रोड जैन संघ ने इसका प्रकाशन कर विद्वत् जगत् का महान उपकार किया है। उत्तम कागज पर मुद्रित इस पुस्तक की साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक एवं मुद्रण सुस्पष्ट है। यह उपयोगी ग्रन्थ प्राच्य विद्या के प्रत्येक पुस्तकालयों एवं विद्वानों के लिये अनिवार्य रूप से संग्रणीय है। ऐसे उपयोगी ग्रन्थ के सम्पादक एवं इसे अल्प मूल्य में उपलब्ध कराने में अर्थ सहयोगी सेठ डोसाभाई अभेचँद पेढी, भावनगर के ट्रस्टीगण सभी बधाई के पात्र हैं।
जालोर एवं स्वर्णगिरिदुर्ग कासांस्कृतिक इतिहास : लेखक - डॉ० सोहनलाल पटनी; प्रकाशक - श्री चैतन्यकुमार जी काश्यप, अध्यक्ष - श्री स्वर्णगिरि जैन श्वेताम्बर तीर्थ पेढी, कंचनगिरि विहार, जालोर; प्रथम संस्करण - २००२ ई०; आकार - रायल अठपेजी; पृष्ठ १२+१२४; पक्की बाइंडिग; मूल्य - २५०/- रुपये मात्र।
मुस्लिम आक्रमण से पूर्व स्वर्णगिरि जालोर पश्चिम भारत का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण राजनैतिक एवं व्यापारिक केन्द्र रहा है। यहां का दुर्ग अजेय समझा जाता था और इसी कारण यह बार-बार मुस्लिम आक्रमणकारियों के कोप का शिकार भी होता रहा। धीरेधीरे इसका महत्त्व घटने लगा। जिस स्वर्णगिरि पर पहले कोट्याधीशों के ही भवन निर्मित हो सकते थे वही स्थान उजाड़ होने लगा और स्थिति यहां तक आ गयी कि यहां स्थित जिनालय हथियारों के गोदाम के रूप में प्रयुक्त होने लगे। त्रिस्तुतिक आचार्य विजय राजेन्द्रसूरिजी के सद्प्रयासों से बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में यहां जिनालयों में पुन: पूजा-अर्चना प्रारम्भ हुई। उनकी परम्परा के सुयोग्य आचार्यों ने समय-समय पर यहां के प्राचीन जिनालयों का न केवल जीर्णोद्धार कराया बल्कि विभिन्न नूतन जिनालयों का निर्माण करा कर इस प्राचीन तीर्थ के गौरव को पुनर्जीवित करने का जो सफल प्रयास किया, वह स्तुत्य है।